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| (चित्र साभार : फिल्म खाप) |
बाबू बजरंगी एक राष्ट्रीय परिघटना बन चुका है। अहमदाबाद के इस शख्स का दावा है कि अब तक वह सैकड़ों हिन्दू कन्याओं को “मुक्त” करा चुका है। “मुक्ति” का यह काम बाबू बजरंगी मुस्लिम युवकों के साथ हिन्दू युवतियों के प्रेम विवाह को बलपूर्वक तुड़वाकर किया करता है। ज़ाहिर है कि अन्तरधार्मिक विवाहों, या यूँ कहें कि दो वयस्कों द्वारा परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कायम करने के स्वतन्त्र निर्णय को संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त होने के बावजूद बाबू बजरंगी का “मुक्ति अभियान” यदि अब तक निर्बाध चलता रहा है तो इसके पीछे तत्कालीन सरकार द्वारा प्राप्त परोक्ष सत्ता-संरक्षण का भी एक महत्त्वपूर्ण हाथ है।
लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा, जो साम्प्रदायिक कट्टरपन्थी नहीं है, वह भी अपने रूढ़िवादी मानस के कारण, अन्तरजातीय-अन्तरधार्मिक प्रेम-विवाहों का ही विरोधी है और बाबू बजरंगी जैसों की हरकतों के निर्बाध जारी रहने में समाज के इस हिस्से की भी एक परोक्ष भूमिका होती है। समाज के पढ़े-लिखे, प्रबुद्ध माने जाने वाले लोगों का बहुलांश आज भी ऐसा ही है जो युवाओं के बीच प्रेम-सम्बन्ध को ही ग़लत मानता है और उसे अनाचार एवं अनैतिकता की कोटि में रखकर देखता है। बहुत कम ही ऐसे अभिभावक हैं जो अपने बेटों या बेटियों के प्रेम-सम्बन्ध को सहर्ष स्वीकार करते हों और अपनी ज़िन्दगी के बारे में निर्णय लेने के उनके अधिकार को दिल से मान्यता देते हों। यदि वे स्वीकार करते भी हैं तो ज्यादातर मामलों में विवशता और अनिच्छा के साथ ही। और जब बात किसी अन्य धर्म के या अपने से निम्न मानी जाने वाली किसी जाति (विशेषकर दलित) के युवक या युवती के साथ, अपने बेटे या बेटी के प्रेम की हो तो अधिकांश उदारमना माने जाने वाले नागरिक भी जो रुख अपनाते हैं, उससे यह साफ हो जाता है कि हमारे देश का उदार और सेक्युलर दिलो-दिमाग़ भी वास्तव में कितना उदार और सेक्युलर होता है! यही कारण है कि जब धर्म या जाति से बाहर प्रेम करने के कारण किसी बेटी को अपने ही घर में काटकर या जलाकर मार दिया जाता है या सरेआम फाँसी पर लटकाकर मार दिया जाता है या उसकी बोटी-बोटी काट दी जाती है या उसके परिवार को गाँव-शहर छोड़ने तक पर मज़बूर कर दिया जाता है तो ऐसे मसलों को लेकर केवल महानगरों का सेक्युलर और प्रगतिशील बुद्धिजीवी समुदाय ही (ग़ौरतलब है कि ऐसे बुद्धिजीवी महानगरीय बुद्धिजीवियों के बीच भी अल्पसंख्यक ही हैं) कुछ चीख़-पुकार मचाता है, शासन-प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की माँग की जाती है, कुछ प्रतीकात्मक धरने-प्रदर्शन होते हैं, कुछ जाँच टीमें घटनास्थल का दौरा करती हैं, अखबारों में लेख-टिप्पणियाँ छपती हैं (और लगे हाथों फ्रीलांसर नामधारियों की कुछ कमाई भी हो जाती है), टी.वी. चैनलों को `मुकाबला´, `टक्कर´ या ऐसे ही नाम वाले किसी कार्यक्रम के लिए मसाला मिल जाता है और कुछ प्रचार-पिपासु, धनपिपासु सेक्युलर बुद्धिजीवियों को भी अपनी गोट लाल करने का मौका मिल जाता है। जल्दी ही मामला ठण्डा पड़ जाता है और फिर ऐसे ही किसी नये मामले का इन्तज़ार होता है जो लम्बा कतई नहीं होता।
मुद्दा केवल किसी एक बाबू बजरंगी का नहीं है। देश के बहुतेरे छोटे-बड़े शहरों और ग्रामीण अंचलों में ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो धर्म और संस्कृति के नाम पर ऐसे कारनामों को अंजाम दिया करते हैं और बात केवल धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवादी राजनीति से प्रेरित गिरोहों की ही नहीं है। ऐसे पिताओं और परिवारों के बारे में भी आये दिन खबरें छपती रहती हैं जो जाति-धर्म के बाहर प्रेम या विवाह करने के चलते अपनी ही सन्तानों की जान के दुश्मन बन जाते हैं। देश के कुछ हिस्सों में, विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाति-बिरादरी की पंचायतों की मध्ययुगीन सत्ता इतनी मज़बूत है कि जाति-धर्म के बाहर शादी करना तो दूर, सगोत्रीय विवाह की वर्जना तक को तोड़ने के चलते पंचायतों द्वारा सरेआम मौत की सज़ा दे दी जाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्ऱफरनगर, सहारनपुर, मेरठ आदि ज़िलों से लेकर हरियाणा तक से हर वर्ष ऐसी कई घटनाओं की खबरें आती रहती हैं और उससे कई गुना घटनाएँ ऐसी होती हैं जो खबर बन पाने से पहले ही दबा दी जाती हैं। इन सभी मामलों में पुलिस और प्रशासन का रवैया भी पूरी तरह पंचायतों के साथ हुआ करता है। अपने जातिगत और धार्मिक पूर्वाग्रहों के चलते पुलिस और प्रशासन के कर्मचारियों की सहानुभूति भी पंचायतों के रूढ़िवादी बड़े-बुजुर्गों के साथ ही हुआ करती है। यहाँ तक कि न्यायपालिका भी इन पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं होती। आये दिन दिल्ली-मुम्बई से लेकर देश के छोटे-छोटे शहरों तक में पार्कों-सिनेमाघरों-कैम्पसों आदि सार्वजनिक स्थानों पर घुसकर कुछ असामाजिक तत्वों और पुलिस द्वारा प्रेमी जोड़ों की पिटाई को भी इसी आम सामाजिक प्रवृत्ति से जोड़कर देखा जाना चाहिए क्योंकि आम लोग ऐसी घटनाओं का मुखर प्रतिवाद नहीं करते।
कहा जा सकता है कि प्रेम करने की आज़ादी सहित किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत आज़ादी, निजता और निर्णय की स्वतन्त्रता के विरुद्ध एक बर्बर किस्म की निरंकुशता पूरी भारतीय सामाजिक संरचना के ताने-बाने में सर्वव्याप्त प्रतीत होती है। सोचने की बात यह है कि उत्पादन की आधुनिक प्रक्रिया अपनाने, आधुनिकतम उपभोक्ता सामग्रियों का इस्तेमाल करने और भौतिक जीवन में आधुनिक तौर-तरीके अपनाने के बावजूद हमारे समाज में निजता, व्यक्तिगत आज़ादी, तर्कणा आदि आधुनिक जीवन-मूल्यों का सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व आज तक क्यों नहीं स्थापित हो सका? भारत में सतत विकासमान पूँजीवाद मध्ययुगीन मूल्यों-मान्यताओं के साथ इतना कुशल-सफल तालमेल क्यों और किस प्रकार बनाये हुए है? इस बात को सुसंगत ढंग से केवल ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
यह सही है कि आज का पश्चिमी समाज समृद्धि के शिखर पर आसीन होने के बावजूद, आर्थिक स्तर पर असाध्य ढाँचागत संकट, राजनीतिक स्तर पर पूँजीवादी जनवाद के क्षरण एवं विघटन तथा सांस्कृतिक-सामाजिक स्तर पर विघटन, अलगाव, नैतिक अध:पतन और अराजकता का शिकार है। पारिवारिक ढाँचे का ताना-बाना वहाँ बिखर रहा है। अपराधों, मानसिक रोगों और आत्मिक वंचना का ग्राफ लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहा है। पूरी दुनिया को लूटकर समृद्धि का द्वीप बसाने वाले पश्चिमी महाप्रभुओं से इतिहास उनकी करनी का वाजिब हिसाब वसूल रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम में नागरिकों के आपसी रिश्तों और परिवार सहित सभी सामाजिक संस्थाओं में जनवाद के मूल्य इस तरह रचे-बसे हुए हैं कि कैथोलिक, प्रोटेस्टेण्ट, यहूदी, मुसलमान, श्वेत, अश्वेत – किसी भी धर्म या नस्ल के व्यक्ति यदि आपस में प्यार या शादी करें तो सामाजिक बहिष्कार या पंचायती दण्ड जैसी किसी बात की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। हो सकता है कि परिवार की पुरानी पीढ़ी कहीं-कहीं इस बात का विरोध करे, पर यह विरोध प्राय: उसूली मतभेद के दायरे तक ही सीमित रहता है। जहाँ तक समाज का सम्बन्ध है, लोग इसे किन्हीं दो व्यक्तियों का निजी मामला ही मानते हैं। यह सही है कि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में अश्वेतों और अन्य आप्रवासियों का पार्थक्य, दोयम दर्जे की आर्थिक स्थिति और उनके प्रति विद्वेष भाव लगातार मौजूद रहता है और पिछले कुछ दशकों के दौरान कुछ नवनात्सीवादी गिरोह इन्हें हिंसा और गुण्डागर्दी का भी शिकार बनाते रहे हैं। धनी-ग़रीब के अन्तर और वर्ग-अन्तरविरोध भी वहाँ तीखे रूप में मौजूद हैं। लेकिन सामाजिक ताने-बाने में वहाँ निजता और व्यक्तिगत आज़ादी के जनवादी मूल्य इस तरह रचे-बसे हैं कि धर्म या नस्ल के बाहर प्रेम या विवाह को मन ही मन ग़लत मानने वाले लोग भी इसका संगठित और मुखर विरोध नहीं करते। पश्चिम में `मैचमेकर्स´ द्वारा परिवारों के बीच बातचीत करके शादियाँ कराने की परम्परा उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक ही दम तोड़ने लगी थी। प्रेम और विवाह के मामलों में वहाँ के समाज में मुख्य और स्थापित प्रवृत्ति युवाओं को पूरी आज़ादी देने की है। इसका मुख्य कारण है कि मानववाद, इहलौकिकता, वैयक्तिकता और जनवाद के मूल्यों को सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों और क्रान्तियों के कई शताब्दियों लम्बे सिलसिले ने यूरोपीय समाज के पोर-पोर में इस कदर रचा-बसा दिया था कि साम्राज्यवाद की एक पूरी सदी बीत जाने के बावजूद, पश्चिमी पूँजीवादी राज्यसत्ताओं के बढ़ते निरंकुश चरित्र और पूँजीवादी जनवाद के पतन-विघटन की प्रक्रिया के समापन बिन्दु के निकट पहुँचने के बावजूद, तमाम सामाजिक विषमताओं, आर्थिक लूट, सामाजिक- सांस्कृतिक-नैतिक अध:पतन तथा पण्यपूजा (कमोडिटी फेटिशिज्म) और अलगाव (एलियनेशन) के घटाटोप के बावजूद, वहाँ नागरिकों के आपसी रिश्तों और मूल्यों-मान्यताओं में व्यक्तियों की निजता और व्यक्तिगत आज़ादी को पूरा सम्मान देने की प्रवृत्ति आज भी इस तरह स्थापित है कि उसे वापस पीछे नहीं धकेला जा सकता। पंचायती न्याय की मध्ययुगीन कबीलाई बर्बरता के बारे में, अन्तरधार्मिक-अन्तरजातीय विवाह करने पर सामाजिक बहिष्कार, अपना गाँव-शहर छोड़ने के लिए विवश होने या हत्या से कीमत चुकाने के बारे में या प्रेमी जोड़ों की पार्कों में सामूहिक पिटाई जैसी घटना के बारे में वहाँ का एक आम नागरिक सोच तक नहीं सकता।
प्रेम की आज़ादी
सामाजिक ताने-बाने में जनवाद और व्यक्तिगत आज़ादी के अभाव और मध्ययुगीन कबीलाई, निरंकुश स्वेच्छाचारिता के प्रभुत्व को तोड़े बिना, परम्पराओं और रूढ़ियों की जकड़बन्दी को छिन्न-भिन्न किये बिना, प्रेम की आज़ादी हासिल नहीं की जा सकती। इसलिए यह सवाल एक आमूलगामी सामाजिक-सांस्कृतिक क्रान्ति का सवाल है। हमें भूलना नहीं होगा कि प्रेम और जीवनसाथी चुनने की आज़ादी का प्रश्न जाति-प्रश्न और स्त्री-प्रश्न से तथा धार्मिक आधार पर कायम सामाजिक पार्थक्य की समस्या से बुनियादी रूप से जुड़ा हुआ है। इन प्रश्नों पर एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन ही समस्या के अन्तिम हल की दिशा में जाने वाला एकमात्र रास्ता है। और साथ ही, इसके बिना, राजनीतिक व्यवस्था-परिवर्तन की किसी लड़ाई को भी अंजाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता। जो समाज अपनी युवा पीढ़ी को अपनी ज़िन्दगी के बारे में बुनियादी फैसले लेने तक की इजाज़त नहीं देता, जहाँ परिवार में पुरानी पीढ़ी और पुरुषों का निरंकुश स्वेच्छाचारी अधिनायकत्व आज भी प्रभावी है, जिस समाज के मानस पर रूढ़ियों-परम्पराओं की ऑक्टोपसी जकड़ कायम है, वह समाज बुर्जुआ समाज के सभी अन्याय-अनाचार को और बुर्जुआ राज्य के वर्चस्व को स्वीकारने के लिए अभिशप्त है। इसीलिए, कोई आश्चर्य नहीं कि संविधान और कानून की किताबों में व्यक्तिगत आज़ादी और जनवाद की दुहाई देने वाली बुर्जुआ राज्यसत्ता अपने तमाम प्रचार-माध्यमों के ज़रिये धार्मिक-जातिगत रूढ़ियों-मान्यताओं, अन्धविश्वासों और मध्ययुगीन मूल्यों को बढ़ावा देने का काम करती है, क्योंकि इन्हीं के माध्यम से वह जनसमुदाय से अपने शासन के लिए एक किस्म की “स्वयंस्फ़ूर्त” सहमति हासिल करती है और यह भ्रम पैदा करती है कि उनका प्रभुत्व जनता की सहमति से कायम है। जो समाज भविष्य के नागरिकों को रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह करने की इजाज़त नहीं देता, वह अपनी गुलामी की बेड़ियों को खुद ही मज़बूत बनाने का काम करता है। इन्हीं रूढ़ियों-परम्पराओं के ऐतिहासिक कूड़े-कचरे के ढेर से वे फ़ासिस्ट गिरोह खाद-पानी पाते हैं जो मूलत: एक असाध्य संकटग्रस्त बुर्जुआ समाज की उपज होते हैं। “अतीत के गौरव” की वापसी का नारा देती हुई ये फ़ासिस्ट शक्तियाँ वस्तुत: पूँजी के निरंकुश सर्वसत्तावादी शासन की वकालत करती हैं और धार्मिक-जातिगत- नस्ली-लैंगिक रूढ़ियों को मज़बूत बनाकर व्यवस्था की बुनियाद को मज़बूत करने में एक अहम भूमिका निभाती हैं। बाबू बजरंगी और प्रेमी जोड़ों पर हमले करने वाले गुण्डागिरोह इन्हीं शक्तियों के प्रतिनिधि उदाहरण हैं।
लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा, जो साम्प्रदायिक कट्टरपन्थी नहीं है, वह भी अपने रूढ़िवादी मानस के कारण, अन्तरजातीय-अन्तरधार्मिक प्रेम-विवाहों का ही विरोधी है और बाबू बजरंगी जैसों की हरकतों के निर्बाध जारी रहने में समाज के इस हिस्से की भी एक परोक्ष भूमिका होती है। समाज के पढ़े-लिखे, प्रबुद्ध माने जाने वाले लोगों का बहुलांश आज भी ऐसा ही है जो युवाओं के बीच प्रेम-सम्बन्ध को ही ग़लत मानता है और उसे अनाचार एवं अनैतिकता की कोटि में रखकर देखता है। बहुत कम ही ऐसे अभिभावक हैं जो अपने बेटों या बेटियों के प्रेम-सम्बन्ध को सहर्ष स्वीकार करते हों और अपनी ज़िन्दगी के बारे में निर्णय लेने के उनके अधिकार को दिल से मान्यता देते हों। यदि वे स्वीकार करते भी हैं तो ज्यादातर मामलों में विवशता और अनिच्छा के साथ ही। और जब बात किसी अन्य धर्म के या अपने से निम्न मानी जाने वाली किसी जाति (विशेषकर दलित) के युवक या युवती के साथ, अपने बेटे या बेटी के प्रेम की हो तो अधिकांश उदारमना माने जाने वाले नागरिक भी जो रुख अपनाते हैं, उससे यह साफ हो जाता है कि हमारे देश का उदार और सेक्युलर दिलो-दिमाग़ भी वास्तव में कितना उदार और सेक्युलर होता है! यही कारण है कि जब धर्म या जाति से बाहर प्रेम करने के कारण किसी बेटी को अपने ही घर में काटकर या जलाकर मार दिया जाता है या सरेआम फाँसी पर लटकाकर मार दिया जाता है या उसकी बोटी-बोटी काट दी जाती है या उसके परिवार को गाँव-शहर छोड़ने तक पर मज़बूर कर दिया जाता है तो ऐसे मसलों को लेकर केवल महानगरों का सेक्युलर और प्रगतिशील बुद्धिजीवी समुदाय ही (ग़ौरतलब है कि ऐसे बुद्धिजीवी महानगरीय बुद्धिजीवियों के बीच भी अल्पसंख्यक ही हैं) कुछ चीख़-पुकार मचाता है, शासन-प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की माँग की जाती है, कुछ प्रतीकात्मक धरने-प्रदर्शन होते हैं, कुछ जाँच टीमें घटनास्थल का दौरा करती हैं, अखबारों में लेख-टिप्पणियाँ छपती हैं (और लगे हाथों फ्रीलांसर नामधारियों की कुछ कमाई भी हो जाती है), टी.वी. चैनलों को `मुकाबला´, `टक्कर´ या ऐसे ही नाम वाले किसी कार्यक्रम के लिए मसाला मिल जाता है और कुछ प्रचार-पिपासु, धनपिपासु सेक्युलर बुद्धिजीवियों को भी अपनी गोट लाल करने का मौका मिल जाता है। जल्दी ही मामला ठण्डा पड़ जाता है और फिर ऐसे ही किसी नये मामले का इन्तज़ार होता है जो लम्बा कतई नहीं होता।
मुद्दा केवल किसी एक बाबू बजरंगी का नहीं है। देश के बहुतेरे छोटे-बड़े शहरों और ग्रामीण अंचलों में ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो धर्म और संस्कृति के नाम पर ऐसे कारनामों को अंजाम दिया करते हैं और बात केवल धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवादी राजनीति से प्रेरित गिरोहों की ही नहीं है। ऐसे पिताओं और परिवारों के बारे में भी आये दिन खबरें छपती रहती हैं जो जाति-धर्म के बाहर प्रेम या विवाह करने के चलते अपनी ही सन्तानों की जान के दुश्मन बन जाते हैं। देश के कुछ हिस्सों में, विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाति-बिरादरी की पंचायतों की मध्ययुगीन सत्ता इतनी मज़बूत है कि जाति-धर्म के बाहर शादी करना तो दूर, सगोत्रीय विवाह की वर्जना तक को तोड़ने के चलते पंचायतों द्वारा सरेआम मौत की सज़ा दे दी जाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्ऱफरनगर, सहारनपुर, मेरठ आदि ज़िलों से लेकर हरियाणा तक से हर वर्ष ऐसी कई घटनाओं की खबरें आती रहती हैं और उससे कई गुना घटनाएँ ऐसी होती हैं जो खबर बन पाने से पहले ही दबा दी जाती हैं। इन सभी मामलों में पुलिस और प्रशासन का रवैया भी पूरी तरह पंचायतों के साथ हुआ करता है। अपने जातिगत और धार्मिक पूर्वाग्रहों के चलते पुलिस और प्रशासन के कर्मचारियों की सहानुभूति भी पंचायतों के रूढ़िवादी बड़े-बुजुर्गों के साथ ही हुआ करती है। यहाँ तक कि न्यायपालिका भी इन पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं होती। आये दिन दिल्ली-मुम्बई से लेकर देश के छोटे-छोटे शहरों तक में पार्कों-सिनेमाघरों-कैम्पसों आदि सार्वजनिक स्थानों पर घुसकर कुछ असामाजिक तत्वों और पुलिस द्वारा प्रेमी जोड़ों की पिटाई को भी इसी आम सामाजिक प्रवृत्ति से जोड़कर देखा जाना चाहिए क्योंकि आम लोग ऐसी घटनाओं का मुखर प्रतिवाद नहीं करते।
कहा जा सकता है कि प्रेम करने की आज़ादी सहित किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत आज़ादी, निजता और निर्णय की स्वतन्त्रता के विरुद्ध एक बर्बर किस्म की निरंकुशता पूरी भारतीय सामाजिक संरचना के ताने-बाने में सर्वव्याप्त प्रतीत होती है। सोचने की बात यह है कि उत्पादन की आधुनिक प्रक्रिया अपनाने, आधुनिकतम उपभोक्ता सामग्रियों का इस्तेमाल करने और भौतिक जीवन में आधुनिक तौर-तरीके अपनाने के बावजूद हमारे समाज में निजता, व्यक्तिगत आज़ादी, तर्कणा आदि आधुनिक जीवन-मूल्यों का सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व आज तक क्यों नहीं स्थापित हो सका? भारत में सतत विकासमान पूँजीवाद मध्ययुगीन मूल्यों-मान्यताओं के साथ इतना कुशल-सफल तालमेल क्यों और किस प्रकार बनाये हुए है? इस बात को सुसंगत ढंग से केवल ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
यह सही है कि आज का पश्चिमी समाज समृद्धि के शिखर पर आसीन होने के बावजूद, आर्थिक स्तर पर असाध्य ढाँचागत संकट, राजनीतिक स्तर पर पूँजीवादी जनवाद के क्षरण एवं विघटन तथा सांस्कृतिक-सामाजिक स्तर पर विघटन, अलगाव, नैतिक अध:पतन और अराजकता का शिकार है। पारिवारिक ढाँचे का ताना-बाना वहाँ बिखर रहा है। अपराधों, मानसिक रोगों और आत्मिक वंचना का ग्राफ लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहा है। पूरी दुनिया को लूटकर समृद्धि का द्वीप बसाने वाले पश्चिमी महाप्रभुओं से इतिहास उनकी करनी का वाजिब हिसाब वसूल रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम में नागरिकों के आपसी रिश्तों और परिवार सहित सभी सामाजिक संस्थाओं में जनवाद के मूल्य इस तरह रचे-बसे हुए हैं कि कैथोलिक, प्रोटेस्टेण्ट, यहूदी, मुसलमान, श्वेत, अश्वेत – किसी भी धर्म या नस्ल के व्यक्ति यदि आपस में प्यार या शादी करें तो सामाजिक बहिष्कार या पंचायती दण्ड जैसी किसी बात की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। हो सकता है कि परिवार की पुरानी पीढ़ी कहीं-कहीं इस बात का विरोध करे, पर यह विरोध प्राय: उसूली मतभेद के दायरे तक ही सीमित रहता है। जहाँ तक समाज का सम्बन्ध है, लोग इसे किन्हीं दो व्यक्तियों का निजी मामला ही मानते हैं। यह सही है कि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में अश्वेतों और अन्य आप्रवासियों का पार्थक्य, दोयम दर्जे की आर्थिक स्थिति और उनके प्रति विद्वेष भाव लगातार मौजूद रहता है और पिछले कुछ दशकों के दौरान कुछ नवनात्सीवादी गिरोह इन्हें हिंसा और गुण्डागर्दी का भी शिकार बनाते रहे हैं। धनी-ग़रीब के अन्तर और वर्ग-अन्तरविरोध भी वहाँ तीखे रूप में मौजूद हैं। लेकिन सामाजिक ताने-बाने में वहाँ निजता और व्यक्तिगत आज़ादी के जनवादी मूल्य इस तरह रचे-बसे हैं कि धर्म या नस्ल के बाहर प्रेम या विवाह को मन ही मन ग़लत मानने वाले लोग भी इसका संगठित और मुखर विरोध नहीं करते। पश्चिम में `मैचमेकर्स´ द्वारा परिवारों के बीच बातचीत करके शादियाँ कराने की परम्परा उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक ही दम तोड़ने लगी थी। प्रेम और विवाह के मामलों में वहाँ के समाज में मुख्य और स्थापित प्रवृत्ति युवाओं को पूरी आज़ादी देने की है। इसका मुख्य कारण है कि मानववाद, इहलौकिकता, वैयक्तिकता और जनवाद के मूल्यों को सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों और क्रान्तियों के कई शताब्दियों लम्बे सिलसिले ने यूरोपीय समाज के पोर-पोर में इस कदर रचा-बसा दिया था कि साम्राज्यवाद की एक पूरी सदी बीत जाने के बावजूद, पश्चिमी पूँजीवादी राज्यसत्ताओं के बढ़ते निरंकुश चरित्र और पूँजीवादी जनवाद के पतन-विघटन की प्रक्रिया के समापन बिन्दु के निकट पहुँचने के बावजूद, तमाम सामाजिक विषमताओं, आर्थिक लूट, सामाजिक- सांस्कृतिक-नैतिक अध:पतन तथा पण्यपूजा (कमोडिटी फेटिशिज्म) और अलगाव (एलियनेशन) के घटाटोप के बावजूद, वहाँ नागरिकों के आपसी रिश्तों और मूल्यों-मान्यताओं में व्यक्तियों की निजता और व्यक्तिगत आज़ादी को पूरा सम्मान देने की प्रवृत्ति आज भी इस तरह स्थापित है कि उसे वापस पीछे नहीं धकेला जा सकता। पंचायती न्याय की मध्ययुगीन कबीलाई बर्बरता के बारे में, अन्तरधार्मिक-अन्तरजातीय विवाह करने पर सामाजिक बहिष्कार, अपना गाँव-शहर छोड़ने के लिए विवश होने या हत्या से कीमत चुकाने के बारे में या प्रेमी जोड़ों की पार्कों में सामूहिक पिटाई जैसी घटना के बारे में वहाँ का एक आम नागरिक सोच तक नहीं सकता।
प्रेम की आज़ादी
सामाजिक ताने-बाने में जनवाद और व्यक्तिगत आज़ादी के अभाव और मध्ययुगीन कबीलाई, निरंकुश स्वेच्छाचारिता के प्रभुत्व को तोड़े बिना, परम्पराओं और रूढ़ियों की जकड़बन्दी को छिन्न-भिन्न किये बिना, प्रेम की आज़ादी हासिल नहीं की जा सकती। इसलिए यह सवाल एक आमूलगामी सामाजिक-सांस्कृतिक क्रान्ति का सवाल है। हमें भूलना नहीं होगा कि प्रेम और जीवनसाथी चुनने की आज़ादी का प्रश्न जाति-प्रश्न और स्त्री-प्रश्न से तथा धार्मिक आधार पर कायम सामाजिक पार्थक्य की समस्या से बुनियादी रूप से जुड़ा हुआ है। इन प्रश्नों पर एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन ही समस्या के अन्तिम हल की दिशा में जाने वाला एकमात्र रास्ता है। और साथ ही, इसके बिना, राजनीतिक व्यवस्था-परिवर्तन की किसी लड़ाई को भी अंजाम तक नहीं पहुँचाया जा सकता। जो समाज अपनी युवा पीढ़ी को अपनी ज़िन्दगी के बारे में बुनियादी फैसले लेने तक की इजाज़त नहीं देता, जहाँ परिवार में पुरानी पीढ़ी और पुरुषों का निरंकुश स्वेच्छाचारी अधिनायकत्व आज भी प्रभावी है, जिस समाज के मानस पर रूढ़ियों-परम्पराओं की ऑक्टोपसी जकड़ कायम है, वह समाज बुर्जुआ समाज के सभी अन्याय-अनाचार को और बुर्जुआ राज्य के वर्चस्व को स्वीकारने के लिए अभिशप्त है। इसीलिए, कोई आश्चर्य नहीं कि संविधान और कानून की किताबों में व्यक्तिगत आज़ादी और जनवाद की दुहाई देने वाली बुर्जुआ राज्यसत्ता अपने तमाम प्रचार-माध्यमों के ज़रिये धार्मिक-जातिगत रूढ़ियों-मान्यताओं, अन्धविश्वासों और मध्ययुगीन मूल्यों को बढ़ावा देने का काम करती है, क्योंकि इन्हीं के माध्यम से वह जनसमुदाय से अपने शासन के लिए एक किस्म की “स्वयंस्फ़ूर्त” सहमति हासिल करती है और यह भ्रम पैदा करती है कि उनका प्रभुत्व जनता की सहमति से कायम है। जो समाज भविष्य के नागरिकों को रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह करने की इजाज़त नहीं देता, वह अपनी गुलामी की बेड़ियों को खुद ही मज़बूत बनाने का काम करता है। इन्हीं रूढ़ियों-परम्पराओं के ऐतिहासिक कूड़े-कचरे के ढेर से वे फ़ासिस्ट गिरोह खाद-पानी पाते हैं जो मूलत: एक असाध्य संकटग्रस्त बुर्जुआ समाज की उपज होते हैं। “अतीत के गौरव” की वापसी का नारा देती हुई ये फ़ासिस्ट शक्तियाँ वस्तुत: पूँजी के निरंकुश सर्वसत्तावादी शासन की वकालत करती हैं और धार्मिक-जातिगत- नस्ली-लैंगिक रूढ़ियों को मज़बूत बनाकर व्यवस्था की बुनियाद को मज़बूत करने में एक अहम भूमिका निभाती हैं। बाबू बजरंगी और प्रेमी जोड़ों पर हमले करने वाले गुण्डागिरोह इन्हीं शक्तियों के प्रतिनिधि उदाहरण हैं।
प्रेम की आज़ादी का सवाल रूढ़ियों से विद्रोह का प्रश्न है। यह जाति-प्रथा के विरुद्ध भी विद्रोह है। सच्चे अर्थों में प्रेम की आज़ादी का प्रश्न स्त्री की आज़ादी के प्रश्न से भी जुड़ा है, क्योंकि प्रेम आज़ाद और समान लोगों के बीच ही वास्तव में सम्भव है। प्रेम के प्रश्न को हम सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के बुनियादी प्रश्न से अलग काटकर नहीं देख सकते। सामाजिक-सांस्कृतिक क्रान्ति के एजेण्डा से हम इस प्रश्न को अलग नहीं कर सकते। इस प्रश्न को लेकर हमारे समाज में संघर्ष के दो रूप बनते हैं। एक,फौरी तथा दूसरा दूरगामी। फौरी तौर पर, जब भी कहीं कोई बाबू बजरंगी या धार्मिक कट्टरपंथियों का कोई गिरोह या कोई जाति-पंचायत प्रेमी जोड़ों को ज़बरन अलग करती है या कोई सज़ा सुनाती है, तो यह व्यक्तिगत आज़ादी या जनवादी अधिकार का एक मसला बनता है। इस मसले को लेकर क्रान्तिकारी छात्र-युवा संगठनों, सांस्कृतिक संगठनों, नागरिक अधिकार संगठनों आदि को आगे आना चाहिए और रस्मी कवायदों से आगे बढ़कर प्रतिरोध की संगठित आवाज़ उठानी चाहिए, संविधान और कानून रस्मी तौर पर हमें जो अधिकार देते हैं उनका भी सहारा लेना चाहिए और व्यापक आम जनता के बीच अपनी बात ले जाकर समर्थन हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। यह प्रक्रिया युवा समुदाय और समाज के प्रबुद्ध तत्त्वों की चेतना को `रैडिकल´ बनाने का भी काम करेगी। लेकिन मात्र इसी उपक्रम को समस्या का अन्तिम समाधान मान लेना एक सुधारवादी दृष्टिकोण होगा। यह केवल फौरी कार्यभार ही हो सकता है। इसके साथ एक दूरगामी कार्यभार भी है और वही फौरी कार्यभार को भी एक क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है।
प्रेम की आज़ादी का प्रश्न बुनियादी तौर पर समाज के मौजूदा आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-रा
अब इस प्रश्न के एक और पहलू पर भी विचार कर लिया जाना चाहिए। चाहे अन्तरजातीय-अन्तरधार्मिक विवाह करने वाले किसी युवा जोड़े पर जाति- बिरादरी के पंचों द्वारा बर्बर अत्याचार का सवाल हो, चाहे एम.एफ. हुसैन के चित्रों के विरुद्ध हिन्दुत्ववादी फासिस्टों की मुहिम हो, या चाहे नागरिक अधिकार, जनवादी अधिकार और व्यक्तिगत आज़ादी से जुड़ा कोई भी मसला हो, इन सवालों पर पढ़े-लिखे मध्य वर्ग का या आम छात्रों-युवाओं का भी बड़ा हिस्सा संगठित होकर सड़कों पर नहीं उतरता। ऊपर हमने इसके सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों की आम चर्चा की है। लेकिन उस आम कारण के एक विशिष्ट विस्तार पर भी चर्चा ज़रूरी है, जो आज के भारतीय समाज में प्रगतिशील एवं जनवादी माने जाने वाले बुद्धिजीवियों की स्थिति और आम जनता के विभिन्न वर्गो के साथ उनके रिश्तों से जुड़ी हुई है।
जब भी अन्तरजातीय-अन्तरधार्मिक प्रेम या विवाह करने वाले किसी जोड़े पर अत्याचार की या नागरिक अधिकार के हनन की कोई घटना सामने आती है तो दिल्ली या किसी राज्य की राजधानी या किसी अन्य महानगर की सड़कों पर कुछ थोड़े से मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी उसके प्रतीकात्मक विरोध के लिए आगे आते हैं। (दिल्ली में) मण्डी हाउस से होकर जन्तर-मन्तर तक, कहीं भी कुछ लोग धरने पर बैठ जाते हैं, किसी एक शाम को मोमबत्ती जुलूस या मौन जुलूस निकाल दिया जाता है, एक जाँच दल घटना-स्थल का दौरा करने के बाद वापस आकर प्रेस के लिए और बुद्धिजीवियों के बीच सीमित वितरण के लिए एक रिपोर्ट जारी कर देता है और कुछ जनहित याचिकाएँ दाखिल कर दी जाती हैं। इन सभी कार्रवाइयों का दायरा अत्यन्त सीमित और अनुष्ठानिक होता है। इनका कर्ता-धर्ता जो बुद्धिजीवी समुदाय होता है, वह केवल तात्कालिक और संकुचित दायरे की इन गतिविधियों से अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री करके अपने प्रगतिशील और जनवादी होने का “प्रमाण” प्रस्तुत कर देता है। व्यापक आम आबादी तक अपनी बात पहुँचाने का, प्रचार और उद्वेलन की विविधरूपा कार्रवाइयों द्वारा उसे जागृत और संगठित करने का तथा ऐसे तमाम मुद्दों को लेकर सामाजिक- सांस्कृतिक आन्दोलन संगठित करने का कोई दूरगामी-दीर्घकालिक कार्यक्रम उनके एजेण्डे पर वस्तुत: होता ही नहीं। उनकी अपेक्षा केवल सत्ता से होती है कि वह संवैधानिक प्रावधानों-कानूनों का सहारा लेकर प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक ताकतों के हमलों से आम लोगों के जनवादी अधिकारों और व्यक्तिगत आज़ादी की हिफाज़त सुनिश्चित करे। लोकतन्त्र के मुखौटे को बनाये रखने के लिए सरकार और प्रशासन तन्त्र भी कुछ रस्मी कार्रवाई करते हैं, कभी-कभार कुछ जाँच, कुछ गिरफ़्तारियाँ होती हैं और कुछ कानूनी कार्रवाइयाँ भी शुरू होती हैं और फ़िर समय बीतने के साथ ही सब कुछ ठण्डा पड़ जाता है।
दरअसल सत्ता और सभी पूँजीवादी चुनावी दलों के सामाजिक अवलम्ब ज़मीनी स्तर पर वही प्रतिगामी और रूढ़िवादी तत्त्व होते हैं, जो सामाजिक स्तर पर जाति-उत्पीड़न, स्त्री-उत्पीड़न और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अलगाव एवं उत्पीड़न के सूत्रधार होते हैं। इसलिए हमारे देश की बुर्जुआ सत्ता यदि चाहे भी तो उनके विरुद्ध कोई कारगर कदम नहीं उठा सकती। यदि उसे सीमित हद तक कोई प्रभावी कदम उठाने के लिए मज़बूर भी करना हो तो व्यापक जन-भागीदारी वाले किसी सामाजिक आन्दोलन के द्वारा ही यह सम्भव हो सकता है। इससे भी अहम बात यह है कि ऐसा कोई सामाजिक आन्दोलन सत्ता के कदमों और कानूनों का मोहताज नहीं होगा, वह स्वयं नये सामाजिक मूल्यों को जन्म देगा, जनमानस में उन्हें स्थापित करेगा और रूढ़िवादी शक्तियों एवं संस्थाओं के वर्चस्व को तोड़ने की आमूलगामी प्रक्रिया को आगे बढ़ायेगा। इस काम को वह बुद्धिजीवी समाज कतई अंजाम नहीं दे सकता जो प्रगतिशील, वैज्ञानिक और जनवादी मूल्यों का आग्रही तो है, लेकिन समाज में उन मूल्यों को स्थापित करने के लिए न तो कोई तकलीफ झेलने के लिए तैयार है और न ही कोई जोखिम उठाने के लिए तैयार है।
जो बुद्धिजीवी आज वामपन्थी, प्रगतिशील, सेक्युलर और जनवादी होने का दम भरते हैं तथा तमाम रस्मी एवं प्रतीकात्मक कार्रवाइयों में लगे रहते हैं, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर निगाह डालने से बात साफ हो जायेगी। प्राय: ये महानगरों में रहने वाले विश्वविद्यालयों-कॉलेजों के प्राध्यापक, मीडियाकर्मी, वकील, फ्रीलांसर पत्रकार व लेखक तथा एन.जी.ओ. व सिविल सोसाइटी संगठनों के कर्ता-धर्ता हैं। कुछ थोड़े से डॉक्टर, इंजीनियर जैसे स्वतन्त्र प्रोफेशनल्स और नौकरशाह भी इनमें शामिल हैं जो प्राय: प्रगतिशील लेखक या संस्कृतिकर्मी हुआ करते हैं। आर्थिक आय की दृष्टि से इनमें से अधिकांश का जीवन सुरक्षित है, इनकी एक सामाजिक हैसियत और इज्ज़त है। यह कथित प्रगतिशील जमात आज़ादी के बाद की आधी सदी, विशेषकर पिछले लगभग तीन दशकों के दौरान, तेज़ी से सुख-सुविधा सम्पन्न हुए मध्य वर्ग की उस ऊपरी परत का अंग बन चुकी है, जिसे इस पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर आर्थिक सुरक्षा के साथ ही सामाजिक हैसियत की बाड़ेबन्दी की सुरक्षा और जनवादी अधिकार भी हासिल हैं। इस सुविधासम्पन्न विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक उपभोक्ता वर्ग में प्रोफेसर, मीडियाकर्मी, वकील आदि के रूप में रोज़ी कमाने वाले जो प्रगतिशील लोग शामिल हैं, वे अपने निजी जीवन में यदि जाति-धर्म को नहीं मानते हैं, स्वयं प्रेम-विवाह करते हैं, अपने बच्चों को इसकी इजाज़त देते हैं और प्रगतिशील आचरण करते हैं, तो भी वे इन मूल्यों को व्यापक आम आबादी के बीच ले जाने के लिए किसी सामाजिक-सांस्कृतिक मुहिम का भागीदार बनने की जहमत या जोखिम नहीं उठाते। साथ ही, इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो प्रगतिशीलता की बात तो करते हैं, लेकिन अपनी निजी व पारिवारिक ज़िन्दगी में निहायत पुराणपन्थी हैं। चुनावी वामपन्थी दलों के नेताओं में से अधिकांश ऐसे ही हैं। इनमें से पहली कोटि के प्रगतिशीलों का कुलीनतावादी जनवाद और वामपन्थ हो या दूसरी कोटि के प्रगतिशीलों का दोगला-दुरंगा जनवाद और वामपन्थ मेहनतकश और सामान्य मध्य वर्ग के लोग उन्हें भली-भाँति पहचानते हैं और उनसे घृणा करते हैं। कुलीनतावादी प्रगतिशीलों और छद्म वामपिन्थयों का जीवन मुख्य तौर पर के ऊपरी पन्द्रह-बीस करोड़ आबादी के जीवन का हिस्सा बन चुका है, उस उच्च मध्यवर्गीय आबादी का हिस्सा बन चुका है जो एक लम्बी पीड़ादायी क्रमिक प्रक्रिया में, विकृत और आधे-अधूरे ढंग से, पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के पूरा होने के बाद, आम जनसमुदाय के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात कर चुका है। उसे देश की लगभग पचपन करोड़ सर्वहारा- अर्द्धसर्वहारा आबादी या रोज़ाना बीस रुपये से कम पर जीने वाली चौरासी करोड़ आबादी के जीवन के अँधेरे और यन्त्राणाओं से अब कुछ भी लेना-देना नहीं रह गया है। एक परजीवी जमात के रूप में वह मेहनतकशों से निचोड़े गये अधिशेष का भागीदार बन चुका है। आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से इस परजीवी वर्ग का हिस्सा बन चुके जो बुद्धिजीवी प्रगतिशील, जनवादी और सेक्युलर विचार रखते हैं, उनकी कुलीनतावादी, अनुष्ठानिक, नपुंसक प्रगतिशीलता आम लोगों में घृणा और दूरी के अतिरिक्त भला और कौन-सा भाव पैदा कर सकती है? इस तबके की जो स्त्रियाँ हैं, ऊपरी तौर पर आम लोगों को वे आज़ाद लगती हैं (हालाँकि वस्तुत: ऐसा होता नहीं) और यह आज़ादी उनकी विशेष सुविधा प्रतीत होती है जिसके चलते मेहनतकश और आम मध्य वर्ग की स्त्रियाँ (ऊपर से सम्मान देती हुई भी) उनसे बेगानगी या घृणा तक का भाव महसूस करती हैं तथा उन्हें अपने से एकदम अलग मानती हैं।
उपरोक्त पूरी चर्चा के ज़रिये हम इस सच्चाई की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं कि प्रेम करने की आज़ादी पर रोक सहित किसी भी मध्ययुगीन बर्बरता, धार्मिक कट्टरपन्थी हमले या जातिवादी उत्पीड़न के विरुद्ध कुलीनतावादी प्रगतिशीलों की रस्मी, प्रतीकात्मक कार्रवाइयों का रूढ़िवादी शक्तियों और मूल्यों पर तो कोई असर नहीं ही पड़ता है, उल्टे आम जनता पर भी इनका उल्टा ही प्रभाव पड़ता है। सुविधासम्पन्न, कुलीनतावादी प्रगतिशीलों का जीवन आम लोगों से इतना दूर है कि उनके जीवन-मूल्य (यदि वास्तविक हों तो भी) जनता को आकृष्ट नहीं करते।
जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है, सच्चे अर्थों में दो स्त्री-पुरुष नागरिकों के बीच प्रेम की आज़ादी का प्रश्न इतिहास का एक दीर्घकालीन प्रश्न है. केवल पुरातन मध्युगीन रूढ़ियाँ, जाति और धर्म के बंधन और बड़े-बुजुर्गों का निरकुंश स्वेच्छाचारी वर्चस्व ही प्रेम करने की मानवीय आज़ादी की राह की बाधाएं नहीं हैं. जिस समाज में पूंजी का जीवन पर चतुर्दिक वर्चस्व स्थापित हो, उस समाज में मनुष्य की तमाम आज़ादियों के साथ ही प्रेम करने की आज़ादी पर भी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में, स्थूल या सूक्ष्म रूप में, एक हज़ार एक पाबंदियां अनिवार्यत: काम करती रहती हैं.



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change is the rule of nature but it will take some time. Same concept is applicable here. You can not change your value system, Ethics, mores and folks.All these are not standards, like ethics change with individual. What is ethical for you, may not be ethical for me.All individuals have the right to choose a right life partner in his/her life.At the same time our value system will not allow the Parents to give the permission to their son/daughter.
The state of thinking will also vary with the possession. Today I when I am young, I think all these old people has a conservative mind set but when i will grow and tomorrow when I will reach at their stage then i will realize that who was right and wrong.
Still I wont support this concept of Honor killing. It's my request to all the readers that never go for such a wrong decision (Honor Killing). Other wise you will regret throughout your life.