लैंगिक विकलांगता और भारतीय समाज





                       डॉ. शशिकांत 
           (प्रसिद्ध लेखक व सह निर्देशक   )                     

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में समाज के हाशिए पर जी रहे लैंगिक विकलांगों की यौन अस्मिता और उनकी समाजार्थिक स्थितियों का मुद्दा अक्सर उठता रहा है। ‘हिजड़ा’ शब्द जेहन में आते ही हमारी आंखों के सामने एक खास तरह की भाव-भंगिमा, आचार-व्यवहार, रहन-सहन, चाल-ढाल वाले इन्सानों की छवि आ जाती है।

मुख्यधारा के समाज में बहिष्कृत, व्यंग्य, घृणा, तिरस्कार आदि सहने को अभिशप्त इस श्रेणी के इंसानों की यौन स्थिति के आधार पर कई और नामों से पुकारा जाता है जैसे ‘किन्नर’, ‘उभयलिंगी’, ‘शिखंडी’ वगैरह। हिजड़ा स्त्री या पुरुष जननांगों के स्पष्ट अभाव वाला वह शख्स है जो न तो स्त्री है और न पुरुष। इनमें सेक्स हारमोन के रिसाव की संभावना नहीं होती है।

किन्नरों को लेकर भारतीय समाज में भिन्न-भिन्न तरह की भ्रांतियां हैं। मिथक और इतिहास में भी इनकी खास तरह की उपस्थिति है। महाभारत का शिखंडी योद्धा था। जिसकी मदद से अर्जुन ने भीष्म पितामह का वध किया था। वह आधा औरत और आधा मर्द यानि किन्नर था। अर्जुन ने अपने अज्ञातवास का एक साल का समय भी किन्नर का रूप धारण कर वृहन्नला के नाम से बिताया था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में किन्नरों का उल्लेख किया है। उस समय राजाओं ने किन्नरों का अपने निजी सुरक्षाकर्मी के तौर पर तैनात किया हुआ था तथा उनका इस्तेमाल जासूसी के लिए किया जाता था।

किन्नर विधायक शबनम मौसी
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, हिंदू और मुसलिम शासकों द्वारा किन्नरों का इस्तेमाल खासतौर पर अंत:पुर ओर हरम में रानियों की पहरेदारी के लिए किया जाता था। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि रानियां पहरेदारों से अवैध संबंध स्थापित नहीं कर पाएं। उस दौर में राजाओं द्वारा काफी नौजवानों के यौनांग काटकर उन्हें हिजड़ा बना दिया जाता था।

दिल्ली की सल्तनत के दौरान किन्नर महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किन्नर वरिष्ठ सैनिक अधिकारी रहे हैं। खिलजी का एक प्रमुख पदाधिकारी मलिक गफूर था, जो किन्नर था। वह खिलजी का दायां हाथ माना जाता था। उसी के प्रयासों से खिलजी ने दक्षिण भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

गुजरात में सुलतान मुजफ्फर के शासनकाल में एक किन्नर मुमित-उल-मुल्क कोतवाल था। जहांगीर के शासनकाल में कई किन्नर महत्वपूर्ण पदों पर थे। एक किन्नर ख्वाजा सराय हिलाल प्रमुख प्रशासनिक पद पर था। उन्हीं के शासन में इफ्तिखार खान नामक एक किन्नर भी था। बाद में जहांगीर ने उसे एक जागीर का फौजदार बना दिया। जहांगीर की अदालत में भी खान नामक एक किन्नर था।

भोपाल के सडक पर किन्नरों की कलश यात्रा
इतिहास में दर्ज किन्नरों की समाजार्थिक, राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन करें तो हम पाते हैं कि इनकी सामाजिक उपयागिता अय्याश राजा-महाराजाओं व नवाबों के हरमों तक में थी। मुगलकाल से पहले इनका अलग सामाजिक अस्तित्व दिखाई नहीं देता। मुख्यधारा के लोगों में व्यापत परंपरागत नकारात्मक धारणाएं, सामाजिक उपेक्षा आदि के कारण आज इक्कीसवीं सदी में भी उनकी दशा ज्यों कि त्यों बनी हुई है। रोजी-रोटी चलाने के लिए ये आज भी बधाई देकर उपहार में मिले पैसों से अपनी जीविका चालाने को मजबूर हैं।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि देश में भिन्न यौन स्थिति के कारण सामाजिक एवं शक्षिक रूप से दीन-हीन हिजड़ों के पुनर्वास, उनके जीवन स्तर में सुधार, सामाजिक संरक्षण आदि के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया गया है। भारतीय नागरिक होने के बावजूद हिजड़े संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों से वंचित हैं।

लैंगिक विकलांगों के प्रति समाज का नकारात्मक व्यवहार और टेलिविजन पर दिखाए जा रहे सोडा के एक विज्ञापन में देखा जा सऽता है। विज्ञापन में एक युवक झूला झूलते हुए पेड़ से टकराकर जमीन पर सीधा खड़ा होता है और सोडा के बोतल में मुंह लगाकर एक घूंट पीता है। उससे जब उसका स्वाद पूछा जाता है तो वह जवाब देता है, ‘‘यह ज्यादा मीठा नहीं फीका है।’’ तुरंत उससे दूसरे बोतल में बंद शीतल पेय का स्वाद पूछा जाता है, जिसे बिना पिए वह जवाब देता है, ‘‘यह न ज्यादा मीठा है न फीका।’’ उसके इस जवाब को सुनकर उसके पीछे खड़े नवयुवक हिजड़ों की नकल उतारते हुए व्यंग्य करते हैं, ‘‘यानि यह न इधर का है न उधर का। बीच का है।’’

इस विज्ञापन में लैंगिक विकलांगों के प्रति पुरुष समाज में व्याप्त पूर्वाग्रह और उनकी नकारात्मक धारणाओं को दर्शाया गया है, जो उनकी लैंगिक स्थिति और यौन अस्मिता का मजा उड़ाता है। ‘यह ज्यादा मीठा नहीं फीका है’ का संदेश देकर उपभोक्ताओं को रिझानेवाले सोडा के इस विज्ञापन में एक शीतल पेय के विरुद्ध ‘यह न ज्यादा मीठा है न फीका’ अर्थात ‘न इधर का है न उधर का यानि बीच का है’ कहकर टिप्पणी की जाती है तो यह लैंगिक विकलांगों के प्रति बाकी समाज में व्याप्त परंपरागत पर्वाग्रह और उनकी नकारात्मक सोच को दर्शाती है।

क्या यह सच नहीं है कि आज भी मुख्यधारा के समाज में किसी व्यक्ति के साहस या उसकी वीरता पौरुष अथवा मर्दानगी पर सवाल लगाना होता है तो उसे ‘हिजड़ा’ कहकर दुत्कारा जाता है। यानि मुख्य यौनधारा के बहुसंख्यक पुल्लिंगी और स्त्रीलिंगी लोगों के लिए ‘हिजड़ा’ शब्द एक भद्दी गाली की तरह है। गर्भावस्था की गड़बड़ी के कारण पैदा होनेवाले एक खास तरह की लैंगिक स्थिति वाले लाखों हिजड़ों के बारे में मुख्यधारा की लैंगिक स्थिति वाले स्त्रियों और पुरुषों की यह नकारात्मक धारणा लैंगिक वर्चस्व का एक नमूना है।

बदलते दौर में हाशिए पर के अन्य समूहों की तरह लैंगिक विकलांग समूह भी आत्मचेतस हुआ है। अस्मिता बोध के कारण सामाजिक दृष्टि से उपेक्षित इस समाज के कुछ लोगों में राजनीतिक चेतना बढ़ी है। 1994 में मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने लैंगिक विकलांगों के मतदान के अधिकार को मंजूरी दी थी। इससे उनके लिए राजनीति के रास्ते खुल गए। मतदाता के तौर पर किन्नरों को महिलाओं के रूप में दर्ज किया जाता है। राजनीति में सबसे पहली सफलता पानेवाली किन्नर हिसार, हरियाणा की शोभा नेहरू है। वह 1995 में हुए नगर निगम के चुनाव में शहर के वार्ड नबर नौ की पार्षद चुनी गई थी। इसके बाद श्रीगंगानगर, राजस्थान में एक किन्नर बसंती भी पार्षद चुनी गई। 

इसी साल के आरंभ में हुए चुनाव में शोभा नेहरू पुनरू पार्षद चुनी गई। राजनीति में अच्छी सफलता किन्नरों को मध्य प्रदेश में मिली। 2002 में वहां किन्नर विधायक, महापौर ओर पार्षद थे। देश की पहली किन्नर विधायक शबनम मौसी शहडोल जिले के सोहागपुर विधानसभा सीट से चुनी गई थी। प्रदेश में 2002 में हुए स्थानीय निकाय चुनाव में चार किन्नर चुने गए थे। बेशक किन्नर समाज की यह राजनीतिक सक्रियता काबिलेगौर है।

एक अनुमान के मुताबिक, 2002 तक देश में बारह लाख से ज्यादा किन्नर थे तथा इनकी संख्या में हर साल चालीस हजार की बढ़ोतरी हो रही है। इस मामले में आश्चर्य की बात यह है कि पिछले दस सालों के दौरान देश भर में मात्र तीन सौ नपुंसक बच्चों के जन्म का ब्यौरा है। 1980 में अखिल भारतीय हिजड़ा ऽल्याण सभा द्वारा ऽराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, तब देश में हिजड़ों की कुल संख्या चार लाख के करीब थी। इसका मतलब साफ है कि जन्मजात हिजड़े कम होते हैं अन्य जबरन बनाए जाते हैं।

ऑल इंडिया हिजड़ा कल्याण सभा के अध्यक्ष खैरातीलाल भोला कहते हैं, ‘‘आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जन्मजात हिजड़ों की संख्या बहुत कम है और ज्यादातर हिजड़े जबरन बनाए गए हैं। भोले-भाले युवकों के यौनांग काटकर उन्हें हिजड़ा बना दिया जाता है। यह सब काम पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे होता है लेकिन कोई इसे रोकनेवाला नहीं है। हिजड़ों ने अपने डॉक्टर रखे हुए हैं जो युवकों के लिंग काटकर उन्हें हिजड़ा बनाने का काम करता है। मगर किसी को परवाह नहीं है।’’

ए एस पंडियन ने ‘संस्कृति और अधीनस्थ चेतना’ शीर्षक लेख में लिखा है कि निम्नवर्गीय लोग ही सिर्फ उच्चवर्गीय लोगों की नकल नहीं करते बल्कि उच्चवर्गीय लोग भी निम्नवर्गीय लोगों की चेतना को प्रभावित करते हैं। जयपुर में घटी एक घटना आम बेरोजगार नवयुवकों में किन्नर चेतना के प्रभाव को दर्शाती है। शहर के मालवीय नगर इलाके में तीन नौजवान- प्रमोद, मधु और राजू रोज की तरह हिजड़े बनकर कॉलोनी के घरों में गए। वहां उन्होंने वे सब कर्मकांड किए जो हिजड़े करते हैं। बाकायदा गोदभराई की रस्म भी कराई और नेग-चार के नाम पर तीन हजार रुपए भी वसूल किए। शहर के उस हिस्से की मालकिन हिजड़ा मुन्नीबाई को जब यह खबर लगी तो वह अनी साथिनों के साथ वहां आ पहुंचीं और उन नकली हिजड़ों पर टूट पड़ीं। उन्होंने उनके बाल काट दिए, उनके कपड़े फाड़ दिए और नंगी होकर भीड़ से न्याय करने को कहा।

इसी तरह, हिजड़ों की जीवटता का समाज की मुख्यधारा के अभिजात लोग भी अपने हित में इस्तेमाल ऽरते हैं। इसका एक उदाहरण मुबई में देखने को मिला, जब एक दक्षिण भारतीय सेठ ने हिजड़ों के अश्लील हुड़दंग का सहारा लेकर अपने डूबते रुपए वसूल किए।

समाज में अब तक हिजड़ों की कोई सुनिश्चित जगह नही है। किन्नरों की सामाजिक आर्थिक दशा और समाज द्वारा उनके साथ किए जा रहे उपेक्षापूर्ण व्यवहार चिंताजनक स्थिति है। बधाई मांगने के लिए टोलियों में गली-गली घूमनेवाले लैंगिक विऽलांगों की सामाजिक उपेक्षा उन्हें संगठित होकर जीविकोपार्जन करने के लिए बाध्य ऽरती है। 

इसीलिए आम लोगों की हिजड़ों के प्रति शिकायत रहती है कि वे जबरन घर में घुस आते हैं और मनमाना पैसा मांगते हैं। समाज मांगलिक अवसरों पर प्रसन्नता से इन्हें दान देता और ये भी हंसी-खुशी के इन मौकों पर कुछ श्लील कुछ अश्लील मगर एक हद तक मर्यादित बतरस और हाव-भावों से लोगों को गुदगुदा कर अपना नेग चार इनाम-इकराम लेकर दुआएं बिखेरते हुए चले जाते थे। अब जबतब ये अश्लीलता पर उतरते देखे जाते हैं।

मुख्यधारा के समाज को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसने लैंगिक रूप से विकलांग लोगों के बुनियादी हक देने में भी कटौती कर रहे हैं। सामाजिक आर्थिक तौर पर ये असुरक्षित हैं। किसी तरह का काम-धंधा हम इन्हें नहीं देते, न सरकारी और न गैर सरकारी स्तर पर। हमारा शासन इनको लेकर पूर्णतरू उपेक्षा का निर्दयी भाव रखता है। 

अपने को कल्याणकारी राज्य कहनेवाली एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में इनके अधिकारों की असरदार पैरवी के लिए हमारा सामाजिक और राजनैतिक संगठन कभी खड़ा नहीं होता है। और तो और हमारे एनजीओ को भी समाज के हाशिए पर रह रहे इन लोगों की चिंता नहीं है। अभी हाल में दिल्ली नगर निगम ने हिजड़ों को हर महीने एक हजार रुपए पेंशन देने की घोषणा की है। लेकिन किन्नरों की स्थिति में बदलाव के लिए यह कदम ऊंट के मुंह में जीरा के समान होगा। 

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Every individual have the right to live and raise his/her voice. Here the gender disparity between male and female or eunuch (middle sex)is becoming a major hurdle in providing the justice to all the living Homo sapiens.This is really a good initiative by Muskan Yugm that you are recognizing a neglected sector of society.

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