अमित बृज
शताब्दियों की असहनीय गुलामी, बेइंतहा जुल्म की दर्दीली दास्तां और आज़ाद हिन्दुस्तान के वास्ते अनगिनत जिंदगानियों की कुर्बानियों के बाद 15 अगस्त 1947 को हिन्दुस्तान ने आखिरकार आ•ाादी के मंगल प्रभात को विश्व पटल पर उदित होते हुए देखा। इस उमीद में कि उसकी आने वाली नस्ल 'विकासÓ की वो इबादत लिखेगी जिसके निशान सदियों तक इतिहास के पन्नों में महफू•ा रहेंगे। उसकी नस्ल ने उस उमीद की गरिमा रखी और देखते ही देखते हिन्दुस्तान विश्व की महाशक्ति बनने की कुबत रखने लगा। उसने हर क्षेत्र में विकास किया। सांप-सपेरों के देश का जीर्ण-शीर्ण लबादा उतार उसने विज्ञान व तकनीक के पंख लगाकर जल, थल और अंतरिक्ष तक को अपने अमिट वजूद का एहसास करा दिया। आर्थिक संकट की अंधकारपूर्ण दौर से इस देश ने खुद को यूं उभारा कि विश्व की सारी आर्थिक महाशक्तियों की आंखें चौंधिया गयी। देश में बुनियादी ढांचा का भी भरपूर फैलाव हुआ। मसलन सड़कों की लबाई 40 लाख किलोमीटर तक जा पहुंची। रेल लाईनों का देश भर में जाल बिछा। संचार के क्षेत्र में अद्भूत क्रांति हुई है। इंटरनेट व सेलुलर फोन सेवाओं ने भारत को विश्व के कोने-कोने से जोड़ दिया है। सामाजिक सेवाओं का दायरा बढ़ा। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय और बीमा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई । 1974 और 1998 में भारत ने परमाणु विस्फोट कर परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों में अपना नाम दजऱ् करा लिया। इस तरह हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और दूरसंचार क्रांति ने देश में विकास की वो लहर पैदा की जिसकी गूंज देश के गल्ली-मोहल्लों से निकलकर न्यूयार्क और लंदन जैसे चमचमाते शहरों में सुनाई देने लगी।
लेकिन जनाब, ठहरिए! आ•ााद मुल्क की इस रोशन तस्वीर के पीछे जो स्याह है, उस पर गौर फरमाइए। भारत निर्माण, इंडिया शाइनिंग जैसे नारे देने वालों इन सियासतदारों से पूछिए कि क्या उन्हें नहीं लगता कि हमारा मुल्क एक पहलू की तरक्की की राह पर बढ़ रहा है। इस मुल्क का एक बड़ा तबका शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य, रोटी, कपड़ा और एक अदद पक्की छत जैसी बुनियादी सहूलियतों से वंचित है। यह तबका भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी की चकरगिन्नी में कुछ यूं पीस रहा है कि वह न तो मर पा रहा है और न ही जी पा रहा है। इसी तबके में एक और तबका है जो गोबर से अनाज निकालकर खाने को मजबूर है। वह आज भी सुरज की परछाइयों से अपना समय मांपता है। वह आज भी 'लालटेन युगÓ में जी रहा है। उसे इंतजार है अपने आशियाने तक बिजली की रोशनी के आने का ताकि रात ढले तो घर में रोशनी हो और उसकी जगमगाहट में उसके बच्चे अपने सुनहरे भविष्य की नींव तैयार कर सकें। दरअसल आ•ाादी के बाद देश की आर्थिक नीतियां कुछ ऐसी रही कि उसने एक खास तबके को हमेशा उपेक्षित रखा। गरीबों की कीमत पर अमीर फलने-फूलने लगे। अमीर-गरीब के बीच का अंतराल बढ़ता गया, जिसे सरकारें अक्सर आंकड़ों की आड़ में छुपाने की कोशिश करती रही। आर्थिक विषमता जैसे-जैसे बढ़ती गयी, हिन्दुस्तान दो भागों में विभक्त हो गया-इंडिया और भारत।
भारत और इंडिया का यह अंतर दरअसल गांव व शहर, व्यापारी व किसान, पूंजीवाद व समाजवाद का नहीं है, यह अंतर तो आर्थिक विषमता का प्रतीकात्मक स्वरूप है। इंडिया आधुनिक सुखसुविधाओं के लैस ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में रहता है। वस्तुत: देश का अभिजात और संपन्न वर्ग इसमें साफ तौर पर शामिल है ही, साथ में वे सब भी हैं जो शिक्षा, संपन्नता, व्यवसाय आदि के माध्यम से उसकी ओर रातदिन बढ़ रहे हैं। जबकि भारत मूलत: देहातों में बसता है, या फिर महानगरों के झोंपड़ी-झुग्गियों में अथवा अतिसामान्य कामचलाऊ घरों में या भारतीय सड़क के दूसरी ओर के जनसुविधाओं के वंचित टूटे-फूटे मकानों या झोपडिय़ों में। आप भारत को अंतिम व्यक्ति मान सकते हैं। कुछ यूं कहा जाए तो इंडिया सुबह नई दिल्ली में बेड टी पीता है, मुबंई में ब्रेकफास्ट करता है, चैन्नई में लंच, कलकत्ता में इवनिंग टी और फिर दिल्ली लौटकर काकटेल और डिनर करता है। जबकि भारत सुबह चार बजे उठकर पानी के लिए जद्दोजहद करता है, खुले में शौच करता है, सुबह जो मिल जाय वह खाता है, दिन भर जी-तोड़ मेहनत करता है और फिर रात सूखी रोटी खाकर सो जाता है।
आर्थिक विषमता ने आजादी के मायने को सीमित कर दिया है। हम आजाद तो यकीनन हैं लेकिन यह आजादी कुछ खास तबके के लिए है। यह आजादी उनके लिए है जो खाद्य सुरक्षा पर हाईप्रोफाइल बैठक कर 1600 से 2200 रुपये प्लेट वाली थाली डकार जाते हैं और मुल्क के गरीब आवाम को कहते हैं कि दिल्ली में पांच रुपया और मुंबई में बारह रुपये में भोजन किया जा सकता है। यह आज़ादी उनके लिए है जो सरकार के तीन साल पूरे होने पर महाभोज का आयोजन कर 7,721 रुपये प्रति थाली खर्च करती है और जनता से कहती है कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते। यह आजादी उन 10 फीसदी लोगों के लिए है, जिन्होंने देश की 90 फीसदी आय पर कब्जा जमाया हुआ है। यह आजादी राजनेताओं, उद्योगपतियों, नौकरशाहों और दंबगों के लिए है। यह आजादी उनके लिए है जिसे इंडिया कहते हैं। भारत तो आज भी गुलाम है। आईए, विकास का ये गुलाबी चश्मा उतारकर देखें कि कितने आजाद हैं हम।
शुरुआत अर्थव्यवस्था से करे तो अंतिम व्यक्ति के कल्याण के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाएं बनाई गई लेकिन राजनैतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अभाव में वे अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान खुद इस बात को स्वीकार किया था कि केन्द्र से भेजे गए एक रुपये में से 15 पैसा ही अंतिम व्यक्ति यानि भारत तक पहुंचता है। स्पष्ट है कि सारा धन भ्रष्टाचार के नाले में जाता हैं। परिणाम ये होता हैं कि अंतिम व्यक्ति इस आर्थिक विकास की मनमोहनी दुनिया से कोसों दूर चला जाता है। भूमण्डलीकरण ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा गौण कर स्थिति और बुरी कर दी।
भूमण्डलीकरण के बहाने बहुराष्ट्रीय कपनियां गांवों तक पहुंच गयी और किसानों, मजदूरों, शिल्पकारों की परपरागत व्यवसाय को बंजर कर गयी। विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर उनको उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया। ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 2 करोड़ लोग जमीन से बेदखल किये जा चुके हैं जिनमें से केवल 54 लाख लोगों को ही पुर्नस्थापित किया गया है। परिणाम स्वरूप समाज में किसानों की आत्महत्या, भूखमरी से मौत और सामाजिक विषमता जैसी प्रवृत्तियां बढ़ती गई। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश में हर 37वें मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। इस देश में सबसे बड़ा अंतर्विरोध तो यह है कि एक तरफ अंतिम व्यक्ति गया प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। पिछले 12 सालों में अमीर और गरीब के बीच की खाई बेइंतहा बढ़ी है। इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं आज शहर में अमीर तबके की खर्च करने की क्षमता गरीब के मुकाबले 15 गुना ज्यादा है।रीबी के कोल्हू में पिसकर अपनी इहलीला समाप्त करने को मजबूर है, तो दूसरी तरफ देश में करोड़पतियों-अरबपतियों की सं
स महीने में 521 रुपये खर्च पा रहा था। इस तरह 4 सदस्यों के परिवार का कुल मासिक खर्च 2,084 रुपये बैठता है। जबकि अमीर तबके में एक आदमी का मासिक खर्च 4,481 रुपये है, जबकि चार सदस्यों के हिसाब से यह 17,925 रुपये बैठता है। कंज़ंप्शन एक्सपेंडिचर सर्वे के नए आंकड़े बताते हैं कि 2000 से 2012 के बीच अमीर तबके के खर्च करने की क्षमता 5 से 60 पर्सेंट बढ़ी है, वहीं गरीब की इन 12 सालों में खर्च करने की ताकत 5 से 30 पर्सेंट तक ही बढ़ पाई है। देश में अमीर और गरीब के अंतर का हैरान कर देने वाले आंकड़े का दूसरा पहलू भी है। 2000 में अमीर तबके की औसत आय गरीब की तुलना में 12 गुना ज्यादा थी। 2012 में यह 15 गुना ज्यादा हो गई। 2012 के आंकडों के मुताबिक गरीब श
अब सवाल है कि इसके लिए जिमेदार कौन है। जाहिर है वो आर्थिक नीतियां हैं जो पूंजी और संसाधनों का केन्द्रीकरण कर एक खास तबके को लाभ पहुंचाने हेतु बनाई जाती है। इससे उस खास तबके में असंतोष पैदा होता है और वह अलगाववादी तत्वों के साथ जुड़ जाता है। फिर उनके लिये इस आजादी के कोई मायने ही नहीं रह जाते। आजादी की स्वर्णजंयती पर अपने उद्बोधन में तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायण के शब्द हमें समाज का चेहरा दिखाते हैं। उनके अनुसार 'उदारीकरण से उपजी विषमता यूं ही बढ़ती रही और धन का अश्लील प्रदर्शन जारी रहा तो समाज में सिर्फ अशान्ति फैलेगी। उथल-पुथल की इस आंधी में सिर्फ गरीब की झोंपड़ी ही नहीं उड़ेगी, अमीरों की आलीशान कोठियां भी उजड़ जायेगी।Ó
त शिक्षा दी जा रही है। लेकिन श्रम और रोजगार मंत्रालय की रिपोर्ट (2011) उठाकर देखें तो लगभग 12 करोड़ बच्चों का बचपन होटलों, उद्योगों और सड़कों की धूल फांकने में बीत जाता है। जिनकी उम्र मां की छाती से लिपटने की होती है वो भी राहों में हाथ पसारे मिल जाते हैं। सरकार मीड डे मील पर अपना सीना चौड़ा कर लेती है, लेकिन जब यही मीड डे मील सैंकड़ों अबोध बच्चों को लील जाती है तो सरकार राजनीति पर उतर आती है और फिर बच्चों की लाशों पर राजनीति का ऐसा नंगा नाच होता है कि शर्म आती है यह कहने में कि हम आजाद है। इन अबोध बच्चों की गलती केवल इतनी है कि इन्होंने एक गरीब परिवार में जन्म लिया।आ•ााद भारत का यह वीभत्स चेहरा सिर्फ आर्थिक गुलामी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सही मायने में हर क्षेत्र में गुलाम हैं। सरकारें यह कहते हुए नहीं अघाती की हमने प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा व व्यावसायिक शिक्षा में अभूतपूर्व तरक्की की। लेकिन इन दावों में जितनी खूबसूरती दिखती है उतनी है नहीं। एक रिपोर्ट के अनुसार 10.8 करोड़ गजभर छाती वाले नवयुवक आज भी बेरोजगारी के कोल्हू में जोत दिये जाते हैं। सरकार कहती है कि सर्वशिक्षा अभियान के तहत 6 से 10 साल के बच्चों को मु
दरअसल बड़ी तसल्ली से लोकतंत्र के मंदिर संसद या किसी आलीशान कॉर्पोरेट बंगले में बैठकर विकास के शोकगीत लिखे जा रहे हैं लेकिन हमारी सरकार सिर्फ विकास के प्रेमगीत को ही गाये जा रही है। नित्य नये घोटाले हो रहे हैं। कोयला घोटाला, 2जी घोटाला, स्वास्थ्य घोटाला, सार्वजनिक वितरण घोटाला, रेल्वे घोटाला, आदर्श घोटाला जैसे अनगिनत घोटाले सामने आ रहे हैं, लेकिन सरकार बेजा विकास का ढोल पीटकर इन घोटालों की गूंज को कुंद करने की कोशिश कर रही है। आंतकवाद और नक्सलवाद देश के लिए नासूर बन चुके है, जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित अंतिम व्यक्ति ही होता है। लेकिन हमें यह भूलने की भूल नहीं करनी चाहिए कि ये सारी विचार धारायें किसी खास समय, काल व परिस्थितियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह संसाधनों और आय के केन्द्रीयकरण का परिणाम हो सकता है। जैसा कि हमने पहले ही कहा कि आर्थिक विषमता सामाजिक विषमताओं की जननी होती है, जो ऐसी प्रवृत्तियों का निर्माण करती है जिनका रूप बेहद भयावह होता है।
त या फिर अंतरराष्ट्रीय बाजार से बेहद कम दामों पर दे रहे हैं। आदिवासी आजादी के इतने सालों बाद भी वैसे ही गरीब है, तमाम योजनाओं से वंचित है और इसके बावजूद हम उन्हें उनकी जमीन से उनकी जिंदगी से बेदखल करने में लगे हुए हैं। क्या यही विकास उन्हें आजाद भारत में मिलना चाहिए।आज जो इलाके माओवाद से प्रभावित बताए जाते हैं, सही मायने में वहां किसी भी किस्म का विकास नहीं हुआ है। ये सारे इलाके अधिकांशत: आदिवासी-बहुल हैं। नीतियों का पूरा ढांचा ही यहां रहने वालों के खिलाफ तैयार किया गया है। गौरतलब है कि आदिवासियों के सारे इलाके खनिज संपन्न हैं। यहां से अकूत संपत्ति खनिज के रूप में निकाली जा रही है। जिस तेजी से इन इलाकों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के प्रस्ताव आ रहे हैं, वह परेशान करने वाला है। देखकर लगता है कि हम उन्हें लूट का लाइसेंस देने के लिए तैयार बैठे हुए हैं। कहीं भी कोई यह सवाल नहीं उठाता है कि आखिर देश को क्या मिल रहा है? विदेशी हमारे देश में आ रहे हैं, हमारी जमीन का खनन करके खनिज ले जा रहे हैं और तमाशा देखिए कि हम ये सब उन्हें तकरीबन मु
अब अगर बात महिलाओं की करें तो महिला आयोग, महिला हेल्प लाईन, नारी सशक्तीकरण योजना जैसी तमाम योजनाओं और कथित कोशिश के बावजूद भी महिलाएं पुरुषसत्तात्मक समाज की गुलाम ही हैं। समाज में व्यापक पैमाने पर बदलाव होने के बावजूद भी आज नारी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। आज भी अपना समान और उचित अधिकार पाने के संघर्षरत है। दासता के रूप में उसे आज भी परावलंबी जीवन जीना पड़ता है। वह आज भी तमाम संबंधों, मूल्यों और धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं को ढो रही है। अपनी पसंद से शादी करने के बाद उसे बेरहमी से मार दिया जाता है। लड़का और लड़की के बीच बहुत ज्यादा भेदभाव किया जाता है और यह बात हम सबसे छिपी नहीं है। हमारे देश के कई हिस्सों में लड़की को उसके जन्म से पहले ही उसे उसकी मां के पेट में मार दिया जाता है। और वो जन्म ले तो उस नन्ही-सी जान को या तो गला दबाकर मार दिया जाता है, या फिर उसे दूध के उबलते कढ़ाईयों में डाल दिया जाता है, या उसे जिंदा गाड़ दिया जाता है। आंकड़े कहते हैं कि भारत में पिछले चार दशकों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 875 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। एनसीआरबी के 1953 से लेकर 2011 तक के अपराध के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 1971 के बाद से देश में बलात्कार की घटनाएं 873.3 फीसदी तक बढ़ी हैं। 1971 में जहां देशभर में 2 हजार 487 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। वहीं 2011 में 24 हजार 206 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा उन मामलों की फेरहिस्त भी काफी लंबी है जिनकी शिकायत थाने तक पहुंचने ही नहीं या पहुंचने ही नहीं दी गई। पुरुषों को जन्म देने वालीं औरतें मर्दों के शोषण से आज भी करह रहीं हैं। क्या आज़ाद मुल्क की ग़ुलाम औरतें नहीं हैं।
या अशिक्षित हो, जहां गज भर की छातियों वाले करोड़ों नौजवान बेरोजगारी के कोल्हू में जोत दिए जाते हो, जहां अंतिम व्यक्ति के जीवन स्तर को सुधारने के लिए रचनात्मक कुछ कर दिखाने के बजाय करोड़ों रुपयों में अपनी ही मूर्तियां लगवाने में फूंक दी जाय और जहां लोगों को जातीयता, धार्मिकता, भाषा एवं क्षेत्रीयता के आधार पर बांटकर राजनीति किया जाय, वह देश आज़ाद नहीं हो सकता है।या गरीबी रेखा के नीचे हो और भूख से तड़प तड़प कर मर जाती हो, जहां आज भी लोग मिट्टी से बनी दीवारों और छतों के नीचे रहने को विवश हैं, जहां गरीबी के चलते करोड़ों दूधमुहें बच्चे बालश्रम में झोंक दिये जाते हों, जहां 33 फीसदी वयस्क और तीन वर्ष से कम उम्र के 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं; जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में हर साल अपनी मेहनत के बल पर पैदा अनाज को बेचकर हजारों किसान मु_ी भर अनाज देखने और उसे पकाने की जद्दोजहद करते हुए आत्महत्या कर लेते हों, जहां लगभग 35 प्रतिशत जनसंया मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और हाशिए की जि़ंदगी जीने को मजबूर है, जहां एक औरत को डायन करारकर सरेआम नंगा कर बेरहमी से पीटा जाता है, जहा हर बीस मिनट में एक दुष्कर्म और हर 25 मिनट में छेड़छाड़ हो रही है और हर 76 मिनट में एक नाबालिग से बलात्कार किया जाता है, जिस देश की एक तिहाई जनसंक्या हमें यह कह कर इतराना चाहिए कि हम आज़ाद हैं। जिस देश की 70 प्रतिशत जनसं
गरीबों की कीमत पर अमीरी का जश्न एक तरह का आन्तरिक उपनिवेशवाद ही है जो देश को तमाम आर्थिक विकास के बावजूद रसाताल में ही ले जाएगा। व्यवस्था के नुमाइंदों को स्वार्थ की राजनीति छोड़ राष्ट्रहित को प्राथमिकता देना चाहिए। आज जरूरत है कि जो वर्ग को सदियों से दमित-शोषित रहा है उसे संविधान प्रदत्त अधिकार दिया जाय, उसके साथ समान व्यवहार किया जाये, तभी इस देश में अमीरी-गरीबी की खाई कम होगी और इसके साथ ही इंडिया बनाम भारत का द्वन्द्व भी खत्म होगा।

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