एक कसे ग़ज़ल सा शहर है मुंबई

गेट वे ऑफ़ इंडिया 


अमित बृज
किसी शायर की कसी गजल की तरह है यह शहर। एक मिसरे का मायना समझा नहीं कि दूसरे कई मायने शब्दों के समंदर में मौजों की तरह इठलाते हुए मिल जाते हैं।
मुंबई, बंबई, बॉम्बे और फिर मुंबई की क्रमिक दास्तां इतिहास की अनगित रहस्यों को अपनी गर्भ में छिपा रखा है। सुनाया जाय तो सदियां बहरी हो जायेगी और लिखा जाय तो पेन की निब भौनी हो जायेगी। अपनी गोद में हिंदी फिल्म जगत को पुरसुकून नींद देने की वजह से लोग इसे मायानगरी बुलाते है। वहीं गावों के गली कूचे में इसे सपनों की नगरीकहते हैं। बचपन में सुनता था कि यही एक शहर है जहां आप कुछ भी सपना देख सकते हैं और पूरा भी कर सकते हैं। कोई जाति नहीं पूछेगा, कोई धर्म भी नहीं पूछेगा। एक हाथ में आत्मविश्‍वास और दूसरे हाथ में ख्वाब... बस यही काफी है आपको इस शहर की पेशानी पर अपने सफलता के लबों की निशानी देने के लिए। यहां कांटेक्ट सबसे बड़ी पूंजी मानी जाती है।
बचपन की सुनी-सुनाई बातें थी जो यहां की आबो-हवा से रुबरु होने के बाद काफी हद तक सच लगी। बीतते वक्त के साथ ही यह एहसास हो गया कि यहां जिंदगी हर कदम पर अपना लिबास बदल लेती है। कभी ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं की कांच वाली खिड़कियों के बाहर सूर्य की सतरंगी किरणों के रुप में दम तोड़ देती है और अपना लेती है कृत्रिम उजालों की दुनिया। कभी गणेश विसर्जन में उमड़ी भीड़ का हिस्सा बनकर उछाल देती है आसमान में अबीर की रंग बिरंगी छटा।
कभी सपनों से समझौता करते हुए मिल जाती है पार्कों में, आफिस में या मायानगरी के किसी ‘‘कास्टिंग काऊच’’ भवन में। कभी व्यक्तिगत समस्या का गुस्सा बस कंडक्टर पर ही निकालने लगती है। कभी असुरक्षित तो कभी भयजदा।
ज़िन्दगी के ऐसे अनेकों रूप यहॉं की गलियों में इधर-उधर बिखरे मिल जायेंगे।ज़िन्दगी और इंसानी व्यक्तित्व की जितनी विविधता और पेचीदगी इस शहर में है,संभवत: और कहीं नहीं। अनोखा शहर है ये। अपने कथ्य और शिल्प में बेजोड़।अपने आप में निराला। यहॉं रहने वालों को मुम्बईकर कहा जाता है। सुना है कि मुंबई और मुम्बईकर का आपसी प्यार अरेंज मैरिज की तरह होता है। एक-दूसरे को समझने में ही कई साल लग जाते हैं। अजनबीपन, तल्खियॉं, और आपसी तु तु-मैं मैंे की एक नमकीनी अंतराल के बाद अंतत: प्यार हो ही जाता है और फिर ऐसा खुमार चढ़ता है कि बस हर शहर मुंबई की जिल्द में लिपटी नजर आने लगती है।सात समंदर पर भी नुक्कड़ों वाली वड़ापाव की सौंधी खुशबु की कशिश पीछा नहीं छोड़ती। जुदाई के एहसासात ऐसे कि बाथरूम की फौब्बारें बैंडस्टैंड की चट्टानों पर सर पटक हवा में बिखर जाने वाली असंख्य मौजों की याद दिला जाती हैं।
कभी कभी लगता है कि मैं एक बूंद हूँ और यह शहर एक समंदर....अथाह...अनंत...असीम। मुझ जैसे अनगिनत बूंदों का एकाकार रूप है यह शहर। इससे जुड़े और फिर इसी का होकर रह गए। तिजारती पहलू में पनपते रिश्ते, ‘मतलब निकल गये तो, पहचानते नहींकी तर्ज वाले रूखे रवैये,मुज़्तरिब(परेशान) चेहरे, और जल्दबाजी की बैशाखी पर सवार वक्त, इस शहर का एक अपरिहार्य हिस्सा है जो खटकती भी है और अक्सर जुबानी झगड़े भी करवा देती है लेकिन इस शहर की फिजां से जुदा नहीं कर पाती है।


कभी कभी सोचता हूँ कि काश एक दिन इस शहर में खुशियों की बारिश हो जाय।अजनबीपन और उजालों की काली स्याह में रंगे चेहरे धुल जाय। समंदर में एक सुनामी सा उठ पड़े। बहा ले जाय अपने साथ एक एक करके अजनबीपन,जल्दबाजी तथा गम की सारी रेत और छोड़ जाय अपनापन, इत्मिनान , व खुशियों की चंद सीपें। उमड़ पड़े सारा शहर तट पर और समुंद्री मौजों की सुरीली धुन में गुनगुनाने लगे अपना पसंदीदा गीत... बेफिक्र...बाइत्मिनान। क्यों, कब, कहां, कैसे जैसे सवालिया शब्दों को कुछपल के लिए खुद से दूर करके फिर सोचता हूँ, माझी सटकली रे...ऐसा होता है कहीं..    

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