प्रीत अरोड़ा की कुछ कवितायेँ






                      डॉ. प्रीत अरोड़ा   
              (नवोदित लेखिका )                     
      कुछ अनकही 
                 
          

(1) आज का इंसान
हारना मैंने सीखा नहीं है
जीतना मेरा लक्ष्य
यही सोच और पैसों की लम्बी दौड़
मैं रहूँ सबसे आगे मानव में लगी हौड़
सतरंगी सपनों मे उलझा वो ऐसा
धर्म-कर्म सब कुछ है पैसा
धन-सम्पदा, मान-मर्यादा, ऊँची आन और शान
मृग-तृष्णा ने ऐसा फाँसा, भूला भले-बुरे का ज्ञान
काला-धन और चोरबाजारी
हाय-रे गयी मति-मारी
चार-दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात
टूट गया, इक सुन्दर सपना, बिगड़ी सारी बात
काश, न उड़ता आसमान में
खुद की कर लेता पहचान
पश्चाताप के आँसू पीता
खो गया आदर-सम्मान
यही है आज का इंसान
यही है आज का इंसान

(2) बाल -अपराधी

रात-दिन पेट भरने का सवाल
माँ की दवाई का कर्ज
पिता का मर्ज
ले आता उसे चिलमिलाती धूप में
मजबूरी में
मजदूरी में

नन्हे -हाथों से टूटते सपने
बिखरती मन की आशाएँ
काम पर ठेकेदार का रौब
घर में भुख-मरी का खौफ
पिता की फटकार से
माँ के दुलार से हर रोज

अपने मासूम कंधों पर
डाल लेता बोझ
भावहीन चहेरे में
जाने कहाँ छिप जाती मासूमियत

परिस्थितियों के वार से
जीवन की हार से
या ज़रूरतों की आँधी में
बन गया बाल-अपराधी
सोचा पकड़ा जाऊँगा तो जेल में
दाल-रोटी तो मुफ्त खाऊँगा

पर हाय रे तकदीर ऐसी
यहाँ भी दगा दे गयी
चोरी कर पकड़ा गया
जंजीरों में जकड़ा गया
पुलिस ने की पिटाई
देने लगा दुहाई

गरीबी का एहसास
बन गया उसके जीवन का अभिशाप

(3) बेटियाँ पराया धन

बेटिया तो होती ही हैं धन पराया
राजा हों या रंक कोई न इसे रख पाया
बेटी -बेटे मे ये भेदभाव क्यों होता है?
बेटा अंश बढाता है, बेटी को पराया कहा जाता है
जिसको वो जानती तक नहीं,
उसी के साथ नाता जोड़ दिया जाता है
लालन -पालन और एक -सी शिक्षा -दीक्षा
फिर बेटी को ही क्यों देनी पड़ती है अग्नि -परीक्षा
जो एक पल भी नहीं होती आँखों से दूर
अचानक वो चली जाती है होकर मजबूर
कितना कठिन होता है
यूँ जिगर के टुकड़े को अपने से दूर कर देना
लाड-प्यार से पाली अपनी लाडली को
परायों के सपुर्द कर देना
माँ-बाप, भाई-बहन का प्यार छोड़कर
नए रिश्ते जोड़ लेती है पुराने तोड़कर
आँखों में
नए सपने ले चली जाती है नया संसार बसाने
बचपन की यादे भुलाकर
ससुराल के रिश्ते निभाने
बस फिर उसका ससुराल अपना हो जाता है
और मायका पराया
पति-बच्चों मे रमकर भूल जाती है
वो अपना पराया
हाय ये कैसी रीत, कोई भी इसे न जाना
किस बेदर्द ने बनाया ये दस्तूर पुराना

(4) नव -चेतना
आओं मिलजुल कर जीवन खुशहाल बनाये
समस्याओ का निदान कर नवचेतना जगाये
यथार्थ के धरातल पर पैर जमाये
आत्म- सयंत कर स्वयं को मजबूत बनाये
आंतकवाद ,भ्रष्टाचार से लड़ समाज को स्वस्थ बनाये
गौतम गाँधी के मार्ग पर चलकर
मातृ-भूमि को स्वर्ग बनाये
दहेज़ प्रथा ,भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियों को जड़ से मिटाएं
आज के बच्चे कल के नेताओं का
जीवन सफल बनाये
सादा जीवन उच्च विचार
ऐसा आदर्श अपनाये
सत्यम शिवम् सुन्दरम का पंचम लहराए
नव जागरण का गीत गाये
वैर -विरोध की भाषा भुलाकर
प्रेम प्यार का बिगुल बजाये
आओ मिल जुल कर जीवन खुशहाल बनाये

(5) सफलता का मंत्र
खुली आंखों से देखें मैंने कुछ सपने
सपने तो सपने हैं कब हुए अपने
टूटेंगे सपने इस ड़र से मन घबराया
दुख के गम से दिल भर आया
कुछ नहीं अपना सब कुछ है पराया
है प्रभु मेरे ,कैसी है तेरी माया
रोते -रोते आँखों मे नीद भर आई
दिल -दिमाग की हुई लडाई
तभी आचानक आत्मा की इक आवाज़ आई
उठो चलो हों जाओ तैयार
समय नहीं करता है इंतज़ार
सपनो को गर करना है साकार
तो व्यर्थ गवाओं समय बेकार
जिसने भी इस मन्त्र को जाना
पड़ा नहीं उसको पछताना
क्योकि
मेहनत कश को मेहनत का सिला मिला है
आदमी तो क्या, ढूंढे से खुदा मिलता है
बस फिर क्या था
नया जोश नयी जवानी
बन गयी अपनी कहानी
आखिर मेरा परिश्रम रंग लाया
जो चाहा वो सब कुछ पाया
दिल दिमाग अब मेरे घुमे
सफलता मेरे चरण चूमे
लेखनी ने करतब दिखलाया
निराशा का अन्धकार भगाया
मेरा सबसे है अनुरोध
निराशा का तुम करो प्रतिरोध
दिल -दिमाग पर कभी जायो
आत्मा को अपना दोस्त बनायो
आशा का तुम दीप जालायो
जीवन अपना सफल बनायो

(6) जीवन का सच
जन्म लेते ही प्राणी मोह -पाश मे बंध जाता है
माँ की मोहिनी मूरत देखकर मुस्कराता है
रंग -बिरंगे खिलोनो की दुनिया मे रम जाता है
भाई -बहन ,दोस्त -बंधुयो मे हँसता -खिलखिलाता है
फिक्र फाका ,मस्त -मलंग -सा जीवन बिताता है
जब योवन की दहलीज पर खुद को खड़ा पता है
तब नए सपने लिये कल्पना के घोड़े दोडाता है
लक्ष्य प्राप्त कर सफलता की सीढ़ी तो चढ़ जाता है
लेकिन जिसने पैदा किया उसी को भूल जाता है
दुनिया मेरी मुट्ठी मे ,यह सोच कर इतराता है
प्रिय का संग पाकर गृहस्थी को अपनाता है
बच्चो संग खेलकर अपना बचपन दोहराता है
धीरे -धीरे जीवन की भाग -दौड़ मे पड़कर उलझता जाता है
फिर वृद्ध होकर स्वयं को असहाए पाता है
जीवन साथी से बिछुड़ कर अकेला रह जाता है
सोचता है कहा गए ,माता -पिता जिन्होंने जन्म दिया
कहा गए संगी -साथी जिनके साथ जीवन -व्यतीत किया
इंसान का वजूद क्या यही सोच पछताता है
आशा -निराशा के दौर से निकलकर
काल -चक्र मे फंस जाता है
किये गये कर्मो के अनुसार
फिर से नया जन्म पता है
इस तरह आवागमन का चक्र
निरंतर चलता जाता है








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