अमित गुप्ता (चीफ एडिटर ) |
विगत २० अक्टूबर को पेड न्यूज मामले में चुनाव आयोग द्वारा किसी राजनीतिज्ञ के खिलाफ पहली बार कार्रवाई किया गया और उत्तर प्रदेश से विधायक उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य करार दे दिया गया।पेड़ न्यूज़ के खिलाफ चुनाव आयोग का यह फैसला निश्चित रूप से एक प्रशंशनीय कदम है जिसकी जितनी सराहना की जाए कम है. निसंदेह भविष्य में इस फैसले का सकरात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे.
वर्तमान समय में ‘पेड न्यूज’ एक हौआ बन चुका है जो पत्रकारिता के ताने–बाने को पूरी तरह तहस–नहस करने पर अमादा है. पूरा का पूरा बौद्धिक जगत इस चिंता में डूबा हुआ है कि पेड न्यूज की कालिख से अखबारी दुनिया को महफूज कैसे रखा जाए? पत्रकारिता में बाजारवाद हावी हो चुका है. मीडिया चंद राजनेताओं और उद्योगपतियों की हाथ की कठपुतली बन चुकी है. अभी कुछ दिन पहले ही सतना में लालकृष्ण आडवाणी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की खबर देने के लिए जुटाए गए पत्रकारों को कुछ उत्साही पदाधिकारियों ने 500 रुपए के नोट वाले लिफाफे बांटे. वहां पत्रकार खुद चलकर नहीं आये थे बल्कि जुटाए गए थे। वो भी मात्र 500 रुपए के भुगतान पर। इस दरमियाँ सबसे तकलीफ देने वाली बात यह थी कि किसी पत्रकार ने भी पैसे लेने से इंकार नहीं किया.
वैसे यह कोई अकेली घटना नहीं थी जिस पर हम शोक व्यक्त करें. सच कहें तो यह भ्रष्ट मीडिया का एक हिस्सा भर था.
जाने क्यूँ इस घटना से भारतीय राजनेताओं के बजाय भारतीय पत्रकारों को लेकर रोष उत्पन्न हुआ. वैसे अगर कारपोरेट पीआर बॉस नीरा राडिया, मीडिया की नामवर हस्तियों और राजनीति के दिग्गजों की टेलीफोन की बातचीत को आधार बनाया जाए तो यह कहने में संकोच नहीं होगा कि आधुनिक भारतीय राजनीति मीडिया-चालित हो चुकी है जो महत्वपूर्ण नीतियों के मामलों में जनता की समझ को गढती या परिचालित करती है, वो राजनीतिक नियुक्ति, नीति-निर्माण और देश के साझे प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के इर्द-गिर्द अंधाधुंध मिथक पैदा करने लगी है. आधुनिक उदारवाद के जनक और प्रवर्तक जॉन लॉक अगर जिन्दा होते तो मीडिया के इस प्रारूप को देखकर कभी भी यह नहीं कहते कि शासन की अच्छाई को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है एक स्वतंत्र मीडिया की मौजूदगी जो निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के कार्यों की जांच-परख करे.
ऐसा भी नहीं है कि वैसे ‘पेड न्यूज’ कोई नई तकनीक नहीं है. पेड न्यूज़ की यह काली बिल्ली पत्रकारिता के परिसर में हमेशा ही विचरण करती रही है. कभी म्याऊं करती है तो कभी गुर्राटी है. इसका जिक्र इतिहास के पन्नों में भी मिलता है. लगभग एक दशक पहले पत्रकारिता का भेद हुआ करता था। एक पत्रकारिता होती थी सकरात्मक एवं दूसरा नकरात्मक, जिसे हम हिन्दी में पीत पत्रकारिता और अंग्रेजी में यलो जर्नलिज्म कहा करते थे। लेकिन अब पत्रकारिता का यह फर्क लगभग समाप्त हो चला है। पत्रकारिता से पीत शब्द लगभग गायब हो चुका है. उसकी जगह पेड न्यूज ने ले ली है. कहने का तात्पर्य है कि ‘पेड न्यूज’ एक ऐसा बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप बदलता रहता है। इस बदलते रूप कि वज़ह से ही मीडिया का समाज के प्रति दायित्व से भटकाव हो रहा है, जो वर्तमान सामाजिक यथार्थ में साफ देखा जा सकता है. मीडिया से सामाजिक सरोकारिता गायब होता जा रहा है. मीडिया पर बाज़ार हावी हो चुका है जो उनकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति करता है। इस पूर्ति हेतु मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से भटक रहा है और पेड न्यूज का सहारा ले रहा है। भटकाव के इस दौर में मीडिया उच्चम समूह की पूर्ति अपनी अवश्यकताओं के साथ-साथ करता रहता है, क्योंकि ये उच्च वर्ग मीडिया पर ही निर्भर रहते हैं। चाहे वोटरों को लुभाना हो, किसी खास मुद्दे पर जनमत तैयार करना हो या अपने उत्पादकों को बाजार में बेचना। जिस कारण मीडिया में एक तबका नदारत होता जा रहा है। जबकि मीडिया सामाजिक संरचना का एक हिस्सा है, बावजूद इसके मीडिया की पूर्ण स्वायत्तता और नैतिकता सामाजिक दायित्वों से उन्मु्क्त होकर आर्थिक और राजनीतिक दशाओं पर प्राय: निर्भर पाया जाता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व पत्रकारिता जन-जागृति और स्वतंत्रता के संघर्ष को गति प्रदान करने का साधन था। समाचार पत्रों के प्रकाशकों और सम्पादकों का एक पैर जेल में रहता था और दूसरा पैर बाहर। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, महामना मदनमोहन मालवीय, बाबू बालमुकुन्द गुप्त, पं. पद्मकान्त मालवीय, पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, श्री मूलचन्द अग्रवाल, श्री शिवपूजन सहाय, पं. बनारसी दास चतुर्वेदी, श्री बाबूराव विष्णु पराडकर, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों ने पत्रकारिता के माध्यम से जनमानस को शिक्षित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। पत्रकारिता को चरित्र निर्माण और जन जागरण का हथियार बनाया। परन्तु आज भौतिकता की चमक-दमक में वही हथियार कुंद होता जा रहा है. उम्मीद है चुनाव आयोग का फैसला इस कुंद हथियार में ईमानदारी की धार पैदा करेगी
वर्तमान समय में ‘पेड न्यूज’ एक हौआ बन चुका है जो पत्रकारिता के ताने–बाने को पूरी तरह तहस–नहस करने पर अमादा है. पूरा का पूरा बौद्धिक जगत इस चिंता में डूबा हुआ है कि पेड न्यूज की कालिख से अखबारी दुनिया को महफूज कैसे रखा जाए? पत्रकारिता में बाजारवाद हावी हो चुका है. मीडिया चंद राजनेताओं और उद्योगपतियों की हाथ की कठपुतली बन चुकी है. अभी कुछ दिन पहले ही सतना में लालकृष्ण आडवाणी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की खबर देने के लिए जुटाए गए पत्रकारों को कुछ उत्साही पदाधिकारियों ने 500 रुपए के नोट वाले लिफाफे बांटे. वहां पत्रकार खुद चलकर नहीं आये थे बल्कि जुटाए गए थे। वो भी मात्र 500 रुपए के भुगतान पर। इस दरमियाँ सबसे तकलीफ देने वाली बात यह थी कि किसी पत्रकार ने भी पैसे लेने से इंकार नहीं किया.
वैसे यह कोई अकेली घटना नहीं थी जिस पर हम शोक व्यक्त करें. सच कहें तो यह भ्रष्ट मीडिया का एक हिस्सा भर था.
जाने क्यूँ इस घटना से भारतीय राजनेताओं के बजाय भारतीय पत्रकारों को लेकर रोष उत्पन्न हुआ. वैसे अगर कारपोरेट पीआर बॉस नीरा राडिया, मीडिया की नामवर हस्तियों और राजनीति के दिग्गजों की टेलीफोन की बातचीत को आधार बनाया जाए तो यह कहने में संकोच नहीं होगा कि आधुनिक भारतीय राजनीति मीडिया-चालित हो चुकी है जो महत्वपूर्ण नीतियों के मामलों में जनता की समझ को गढती या परिचालित करती है, वो राजनीतिक नियुक्ति, नीति-निर्माण और देश के साझे प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के इर्द-गिर्द अंधाधुंध मिथक पैदा करने लगी है. आधुनिक उदारवाद के जनक और प्रवर्तक जॉन लॉक अगर जिन्दा होते तो मीडिया के इस प्रारूप को देखकर कभी भी यह नहीं कहते कि शासन की अच्छाई को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है एक स्वतंत्र मीडिया की मौजूदगी जो निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के कार्यों की जांच-परख करे.
ऐसा भी नहीं है कि वैसे ‘पेड न्यूज’ कोई नई तकनीक नहीं है. पेड न्यूज़ की यह काली बिल्ली पत्रकारिता के परिसर में हमेशा ही विचरण करती रही है. कभी म्याऊं करती है तो कभी गुर्राटी है. इसका जिक्र इतिहास के पन्नों में भी मिलता है. लगभग एक दशक पहले पत्रकारिता का भेद हुआ करता था। एक पत्रकारिता होती थी सकरात्मक एवं दूसरा नकरात्मक, जिसे हम हिन्दी में पीत पत्रकारिता और अंग्रेजी में यलो जर्नलिज्म कहा करते थे। लेकिन अब पत्रकारिता का यह फर्क लगभग समाप्त हो चला है। पत्रकारिता से पीत शब्द लगभग गायब हो चुका है. उसकी जगह पेड न्यूज ने ले ली है. कहने का तात्पर्य है कि ‘पेड न्यूज’ एक ऐसा बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप बदलता रहता है। इस बदलते रूप कि वज़ह से ही मीडिया का समाज के प्रति दायित्व से भटकाव हो रहा है, जो वर्तमान सामाजिक यथार्थ में साफ देखा जा सकता है. मीडिया से सामाजिक सरोकारिता गायब होता जा रहा है. मीडिया पर बाज़ार हावी हो चुका है जो उनकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति करता है। इस पूर्ति हेतु मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से भटक रहा है और पेड न्यूज का सहारा ले रहा है। भटकाव के इस दौर में मीडिया उच्चम समूह की पूर्ति अपनी अवश्यकताओं के साथ-साथ करता रहता है, क्योंकि ये उच्च वर्ग मीडिया पर ही निर्भर रहते हैं। चाहे वोटरों को लुभाना हो, किसी खास मुद्दे पर जनमत तैयार करना हो या अपने उत्पादकों को बाजार में बेचना। जिस कारण मीडिया में एक तबका नदारत होता जा रहा है। जबकि मीडिया सामाजिक संरचना का एक हिस्सा है, बावजूद इसके मीडिया की पूर्ण स्वायत्तता और नैतिकता सामाजिक दायित्वों से उन्मु्क्त होकर आर्थिक और राजनीतिक दशाओं पर प्राय: निर्भर पाया जाता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व पत्रकारिता जन-जागृति और स्वतंत्रता के संघर्ष को गति प्रदान करने का साधन था। समाचार पत्रों के प्रकाशकों और सम्पादकों का एक पैर जेल में रहता था और दूसरा पैर बाहर। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, महामना मदनमोहन मालवीय, बाबू बालमुकुन्द गुप्त, पं. पद्मकान्त मालवीय, पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, श्री मूलचन्द अग्रवाल, श्री शिवपूजन सहाय, पं. बनारसी दास चतुर्वेदी, श्री बाबूराव विष्णु पराडकर, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों ने पत्रकारिता के माध्यम से जनमानस को शिक्षित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। पत्रकारिता को चरित्र निर्माण और जन जागरण का हथियार बनाया। परन्तु आज भौतिकता की चमक-दमक में वही हथियार कुंद होता जा रहा है. उम्मीद है चुनाव आयोग का फैसला इस कुंद हथियार में ईमानदारी की धार पैदा करेगी
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