जेबकतरा
-ज्ञानप्रकाश विवेक
बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपये और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था, कि मेरी नौकरी छूट गई है। अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था, पोस्ट करने को मन नही नहीं कर रहा था।
नौ रुपये जा चुके थे। यूँ नौ रुपये कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपये नौ सौ से कम नहीं होते।
कुछ दिन गुजरें, माँ का खत मिला, पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने का लिखा होगा, लेकिन खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था, ‘‘बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनिआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!...पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।’’
मैं इसी उधेड़बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीऑर्डर किसने भेजा होगा?
कुछ दिन बाद एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं, आढ़ी–तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था, ‘‘भाई ! नौ रुपये तुम्हारे और इकतालीस रुपये अपनी ओर से मिलाकर, मैंने तुम्हारी माँ को मनीऑर्डर भेज दिया है।....फिकर न करना।...माँ तो सबकी एक जैसी होती है न! वह क्यों भूखी रहे?.....तुम्हारा जेबकतरा!’’
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वज्रपात
-ख़लील ज़िब्रान
तूफानी दिन था। एक औरत गिरजाघर में पादरी द्स सम्मुख आकर बोली, “मैं ईसाई नहीं हूँ क्या मेरे लिए जीवन की नारकीय यातनाओं से मुक्ति का कोई मार्ग है?”
पादरी ने उस औरत की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नहीं, मुक्ति मार्ग के विषय में मैं उन्हीं को बता सकता हूँ, जिन्होंने विधिवत् ईसाई धर्म की दीक्षा ली हो।”
पादरी के मुहँ से यह शब्द निकले ही थे कि तेज गड़गड़ाहट के साथ बिजली वहाँ आ गिरी और पूरा क्षेत्र आग की लपटों से घिर गया।
नगरवासी दौड़े-दौड़े आए और उन्होंने उस औरत को तो बचा लिया, तब तक पादरी अग्नि का ग्रास बन चुका था।************************************************
घाटे का सौदा
- सआदत हसन मण्टो :
दो दोस्तों ने दस बीस लड़कियों में से एक चुनी और 42 रुपये देकर उसे खरीद लिया। रात गुज़ारकर एक दोस्त ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भन्ना गया, “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो।”
लड़की ने जवाब दिया, “उसने झूठ बोला था।”
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा ,“उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है । हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी । चलो वापस कर आएँ।”
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बोहनी
-चित्रा मुद्गल
उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत–सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए चीकट अंगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की बी0टी0 लोकल मुझे पकड़नी होती और अक्सर मैं ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथ यंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुँह से रिरियायी–सी झरतीं...आठ–दस डग पीछा करतीं।
उस रोज इत्तिफाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। मैं ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुजर गई ।
दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं!...और बगैर दिए ही निकल गई।
तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अंगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया–‘‘माँ..मेरी माँ...पैसा नई दिया ना? दस पैसा फकत....’’
ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किंतु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है, ‘‘माँ..मेरी माँ....’’ मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता....तुम नई देता तो कोई नई देता....तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता....तीन दिन से तुम नई दिया माँ...भुक्का है, मेरी माँ!’’
भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपए का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अंगोछे पर उछालकर दुआओं से नख–शिख भीगती जैसी ही मैं प्लेटफॉर्म पर पहुँची मेरी आठ बीस की गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी थी। आँखों के सामने मस्टर घूम गया अब...? ************************************************
कटे हाथ
-विकेश निझावन
-ज्ञानप्रकाश विवेक
बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपये और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था, कि मेरी नौकरी छूट गई है। अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था, पोस्ट करने को मन नही नहीं कर रहा था।
नौ रुपये जा चुके थे। यूँ नौ रुपये कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपये नौ सौ से कम नहीं होते।
कुछ दिन गुजरें, माँ का खत मिला, पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने का लिखा होगा, लेकिन खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था, ‘‘बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनिआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!...पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।’’
मैं इसी उधेड़बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीऑर्डर किसने भेजा होगा?
कुछ दिन बाद एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं, आढ़ी–तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था, ‘‘भाई ! नौ रुपये तुम्हारे और इकतालीस रुपये अपनी ओर से मिलाकर, मैंने तुम्हारी माँ को मनीऑर्डर भेज दिया है।....फिकर न करना।...माँ तो सबकी एक जैसी होती है न! वह क्यों भूखी रहे?.....तुम्हारा जेबकतरा!’’
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वज्रपात
-ख़लील ज़िब्रान
तूफानी दिन था। एक औरत गिरजाघर में पादरी द्स सम्मुख आकर बोली, “मैं ईसाई नहीं हूँ क्या मेरे लिए जीवन की नारकीय यातनाओं से मुक्ति का कोई मार्ग है?”
पादरी ने उस औरत की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नहीं, मुक्ति मार्ग के विषय में मैं उन्हीं को बता सकता हूँ, जिन्होंने विधिवत् ईसाई धर्म की दीक्षा ली हो।”
पादरी के मुहँ से यह शब्द निकले ही थे कि तेज गड़गड़ाहट के साथ बिजली वहाँ आ गिरी और पूरा क्षेत्र आग की लपटों से घिर गया।
नगरवासी दौड़े-दौड़े आए और उन्होंने उस औरत को तो बचा लिया, तब तक पादरी अग्नि का ग्रास बन चुका था।************************************************
घाटे का सौदा
- सआदत हसन मण्टो :
दो दोस्तों ने दस बीस लड़कियों में से एक चुनी और 42 रुपये देकर उसे खरीद लिया। रात गुज़ारकर एक दोस्त ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भन्ना गया, “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो।”
लड़की ने जवाब दिया, “उसने झूठ बोला था।”
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा ,“उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है । हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी । चलो वापस कर आएँ।”
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बोहनी
-चित्रा मुद्गल
उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत–सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए चीकट अंगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की बी0टी0 लोकल मुझे पकड़नी होती और अक्सर मैं ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथ यंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुँह से रिरियायी–सी झरतीं...आठ–दस डग पीछा करतीं।
उस रोज इत्तिफाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। मैं ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुजर गई ।
दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं!...और बगैर दिए ही निकल गई।
तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अंगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया–‘‘माँ..मेरी माँ...पैसा नई दिया ना? दस पैसा फकत....’’
ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किंतु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है, ‘‘माँ..मेरी माँ....’’ मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता....तुम नई देता तो कोई नई देता....तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता....तीन दिन से तुम नई दिया माँ...भुक्का है, मेरी माँ!’’
भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपए का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अंगोछे पर उछालकर दुआओं से नख–शिख भीगती जैसी ही मैं प्लेटफॉर्म पर पहुँची मेरी आठ बीस की गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी थी। आँखों के सामने मस्टर घूम गया अब...? ************************************************
कटे हाथ
-विकेश निझावन
इन हाथों से वह कविता लिखा करता था।
इन हाथों से वह कहानियाँ लिखा करता था।
इन हाथों से वह चित्र बनाया करता था।
उसकी शादी हो गई। पत्नी को उसका कविता लिखना, कहानी लिखना, चित्र बनाना कतई नहीं भाया।
उसने कलम एक ओर रख दी। सोचा, ये लिखना और चित्र बनाना तभी सार्थक हो सकता है, यदि वास्तविक जीवन भी इतना ही खूबसूरत हो। पहले पत्नी से ‘एडजस्टमैन्ट’ कर ले, फिर इन चीजों को उठाएगा।
पर पत्नी उसे कहाँ समझ पाई। हर बात में खींचातानी। एक बार पत्नी पर हाथ उठ गया उसका।
–खबरदार, जो मुझ पर हाथ उठाया तो! काट कर रख दूँगी इन्हें।
वह सोचने लगा। अब उसके पास ऐसे कौन से हाथ हैं। जो कटने बाकी रह गए हैं।
अरुण कुमार सिंह
चार कुत्ते
कोठी वाले इलाके की पिछली गली में चार कुत्ते बड़ी देर से चक्कर लगा रहे थे कि बंगले की खिड़की से किसी ने एक रोटी गिरायी।
पहला कुत्ता,जो चारों से तगड़ा था, ने दौड़कर रोटी झपट ली। दूसरा, जो पहले की गर्दन दबोच ली और पंजे से उसके मुहँ की रोटी को छीनने का प्रयत्न करने लगा।
तीसरा कुत्ता भी जवान ही था काफी दुर्बल ! रोटी तक पहुँचने में वह अक्षम, बेचारा जोर-जोर से भूँकने लगा।
चौथा कुत्ता, जो बिल्कुल बूढ़ा हो चुका था और रोटी पाने में किसी प्रकार भी सक्षम न था,सो दूर बैठा हाँफता रहा और रोटी के लिए लार टपकाता रहा ।
इतने में एक पाँचवा कुत्ता वहाँ आया जो सज्जन कुत्ते -सा दीखता था। उसने बूढ़े कुत्ते से पूछ लिया, “क्या माजरा है भाई?”
वृद्ध उठ खड़ा हुआ और अकड़कर दार्शनिक-मुद्रा में पाँचवे कुत्ते से बोला, “ अरे होगा क्या जी? साले कुत्ते हैं !”
इन हाथों से वह कहानियाँ लिखा करता था।
इन हाथों से वह चित्र बनाया करता था।
उसकी शादी हो गई। पत्नी को उसका कविता लिखना, कहानी लिखना, चित्र बनाना कतई नहीं भाया।
उसने कलम एक ओर रख दी। सोचा, ये लिखना और चित्र बनाना तभी सार्थक हो सकता है, यदि वास्तविक जीवन भी इतना ही खूबसूरत हो। पहले पत्नी से ‘एडजस्टमैन्ट’ कर ले, फिर इन चीजों को उठाएगा।
पर पत्नी उसे कहाँ समझ पाई। हर बात में खींचातानी। एक बार पत्नी पर हाथ उठ गया उसका।
–खबरदार, जो मुझ पर हाथ उठाया तो! काट कर रख दूँगी इन्हें।
वह सोचने लगा। अब उसके पास ऐसे कौन से हाथ हैं। जो कटने बाकी रह गए हैं।
अरुण कुमार सिंह
चार कुत्ते
कोठी वाले इलाके की पिछली गली में चार कुत्ते बड़ी देर से चक्कर लगा रहे थे कि बंगले की खिड़की से किसी ने एक रोटी गिरायी।
पहला कुत्ता,जो चारों से तगड़ा था, ने दौड़कर रोटी झपट ली। दूसरा, जो पहले की गर्दन दबोच ली और पंजे से उसके मुहँ की रोटी को छीनने का प्रयत्न करने लगा।
तीसरा कुत्ता भी जवान ही था काफी दुर्बल ! रोटी तक पहुँचने में वह अक्षम, बेचारा जोर-जोर से भूँकने लगा।
चौथा कुत्ता, जो बिल्कुल बूढ़ा हो चुका था और रोटी पाने में किसी प्रकार भी सक्षम न था,सो दूर बैठा हाँफता रहा और रोटी के लिए लार टपकाता रहा ।
इतने में एक पाँचवा कुत्ता वहाँ आया जो सज्जन कुत्ते -सा दीखता था। उसने बूढ़े कुत्ते से पूछ लिया, “क्या माजरा है भाई?”
वृद्ध उठ खड़ा हुआ और अकड़कर दार्शनिक-मुद्रा में पाँचवे कुत्ते से बोला, “ अरे होगा क्या जी? साले कुत्ते हैं !”
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