बढ़ता रिवाज लेट मैरिज का






                     रीना शर्मा   
                  (वकील व कार्यकर्ता )                        

आज के आधुनिक युग में (विशेषकर मेट्रो शहरों में ) देर से शादी करने का रिवाज दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है. इस भागती दौड़ती जिंदगी और करियर की आपधापी में शादी करने की उम्र का थर्म मीटर थोडा ऊपर आ गया है. अब शादी की उम्र २५ से ३५ के बीच हो चुकी है. अब हम थोडा फ्लैशबैक में जाये तो शादी की उम्र औसतन १५ से २३ हुआ करती  थी. लड़कों की अगर बात छोड़ दिया जाय तो लड़की की १८ की सीमा रेखा पार होते  ही माँ बाप व रिश्तेदारों की निगाहें लड़के ढूढनें में लग जाती थी. लड़की जैसे जैसे बढ़ी होती, घर में खुसुर फुसुर बढ़ने लगती. घरवालों के चेहरों पर सिकन और माथे पर सिलवटें जगह ले लेती थीं. शादी फिक्स हो जाती थी. लड़की की रजामंदी, ये किस बला का नाम है. किसी को कुछ फर्क नहीं पढता था उसके जेहन में क्या चल रहा है. वो खुश है भी या नहीं? वो मानसिक रूप से शादी के लिये  तैयार है भी या नहीं.? ग्रामीण परिवेश में आज भी ऐसा ही होता है. लेकिन मेट्रो शहरों में शादी का पैमाना बदल चुका है. दायरे टूट रहें हैं. लड़कियां घर के बाहर आ चुकी है और अपनी काबिलियत के दम पर खुद को लड़कों से बेहतर भी साबित कर रही है. अब अगर हम देर से शादी करने कि वजहों पर प्रकाश डालें तो उसके पीछे कई वज़ह उभरकर सामने आतीं हैं. 
पहले करियर फिर शादी  
आज लड़कियां शादी से पहले ही अपनी जिंदगी को सेटल करना चाहती हैं, और इस गला काट प्रतियोगिता की दौर में कैरियर को सेट करने में ही उम्र कब २० से ३० हो गयी, पता ही नहीं चलता. और ऐसे माहौल में शादी के बारे में सोचना बांस से पत्थर तोड़ने के समान होता है. साथ ही हमारे समाज से आज भी यही मानसिकता मौजूद है कि शादी के बाद लड़की कि जिन्दगी का सफ़र ख़त्म हो जाता है. कुछ कामकाजी लड़कियों से बात करने पर ये बाते उभर कर सामने भी आयी. उनका मानना था कि शादी के बाद कैरियर के बारे में सोचना थोडा मुश्किल होता है. बल बच्चों और घर की जिमेदारियां इस कदर हावी होती है कि सपनों को आकार देना टेढ़ी खीर होता है. इसिलिया हम सोचते हैं कि शादी के पहले ही जो भी करना हो कर ले. देर से शादी करने कि ये मुख्य वज़ह भी हो सकती है. 
आर्थिक मजबूती और आत्मनिर्भरता
 वो वक्त अब काफी हद तक ढल चूका है जब लड़कियों को पैसे के लिए घरवालों पर आश्रित रहना पढता था. अब वें अच्छी जॉब कर रही है. ऊँचे पोस्ट और ऊँचे वेतन पर काम कर रहीं हैं. उनकी आत्म्निभरता उनमें आत्मविश्वास पैदा कर रही है. वे अपनी जिंदगी के निर्णय लेने में सक्षम हो चुकी हैं. कब शादी करना है कब नहीं, ये उनका व्यक्तिगत मसला बन चूका है. माँ बाप भी अब हस्तक्षेप नहीं करते क्योंकि अब वो उन्हें बोझ नहीं लगती हैं. 

 फैसला खुद लेने में सक्षम
  ज्यादातर लड़कियां अपनी जिंदगी को अपने ढंग से जीना चाहती हैं, जो शादी के बाद आमतौर पर नहीं होता। काफी लोगों का ये कहना है कि वें शादियाँ अपने शर्तों पर ही करेंगी. वें किसी भी बंधन में बंध कर नहीं रहना चाहती हैं. वें ऐसे किसी से ही शादी करना चाहती हैं जो उनके जीने के ढंग में  हस्तक्षेप न करें बल्कि खुद कोआपरेट करें. इस चक्कर में कई लोगों से प्यार और ब्रेक उप का सिलसिला चलता रहता है. और जैसे ही उन्हें लगता है कि यही मेरे लिए परफेक्ट चोइस है, तभी ओ अपने आप को शादी के लिया मानसिक रूप से तैयार कर पाती हैं.मतलब अब वो अपनी जिंदगी के फैसले लेने में खुद सक्षम हो चुकी हैं. दूसरी बात समाज में अपनी अलग पहचान बनाने, सब कुछ परफेक्ट ढंग से करने की इच्छा ने भी उन्हें  शादी देर से करने को प्रेरित किया है
जागरूक माता पिता  
 आधुनिक समय में स्थिति काफी बदल चुकी है. अब माता पिता भी लड़कियों की शादी को लेकर परेशां नहीं होतें हैं बल्कि अब वो खुद ये सोचने लगे है कि पहले लड़की का कैरियर सेट हो जाय, उसके बाद शादी करना बेहतर होगा. यहाँ तक अब माता पिता भी उनके करियर बनाने में सहयोग कर रहे है. फिर चाहे वो सानिया मिर्ज़ा के पिता हो या शबाना आज़मी के. बेटी को लेकर जो मानसिकता हमारे समाज में कुछ दशक पहले था, अब वो धीरे धीरे विलुप्त हो रहा है तथा सामाजिक मूल्य भी बदल रहें हैं. 
 लिव-इन-रिलेशनशिप
लिव-इन-रिलेशनशिप एक नया ट्रेंड है। अपने पार्टनर को जानने, समझने और परखने का यह एक नया हथियार बन चूका है ।  वैसे ये शादी सरीखे ही होता है ,सिर्फ इसमें शादी की मोहर नहीं लगती। इस दौरान लडका-लडकी एक साथ रहते हैं, एक-दूसरे को समझते हैं और यदि उन्हें लगता है कि पूरी जिंदगी साथ रह सकते हैं तो वे शादी भी कर लेते हैं। सही पार्टनर पाने के चक्कर में भी नई पीढी शादी में देरी करती है। हलाकि बुध्जिवियों का एक बड़ा वर्ग इसे रखैल व्यस्था के बाजारीकरण का नाम देते हैं जिसमे नारी को मूर्ख समझने वाला बाजार उसे अंतिम रूप से केवल एक उपभोग की वस्तु में तब्दील कर देना चाहता है और भोगी पुरुषों की इसमें पूरी स्वीकृति भी शामिल है. खैर जो भी हो, ये ट्रेंड अब एक बड़ा रूप लेता जा रहा है. युवा वर्ग में तो इसका चलन बड़े पैमाने पर हो रहा है. 

लेट मैरिज के दुष्परिणाम 
बेशक करियर बनाने की चाहत में आधुनिक जमाने की महिलाओं की शादी की औसत उम्र बढ़ रही है। इनमें से कुछ तो तीस  के आखिर और ४०  की शुरुआत में जाकर शादी के बारे में सोचना शुरू करती हैं। शहरो में पहले से ही शादी देर से करने का रिवाज बढ़ रहा है और जीवन की आपाधापी, काम के तनाव और व्यस्तता की वजह से रिश्तों में दूरियां वैसे ही आ गई है। कई रिश्ते टूट गए, कुछ टूट के कगार पर हैं तो कुछ ढोए जा रहे हैं। जहां समझदारी है वहां घुटन भी है जो सिर्फ एक को खाए जा रही है, वह है सिर्फ स्त्री। 
स्‍त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ के अनुसार करियर बनाने और पढ़ाई के चलते ज्यादातर युवतियॉं लेट मैरिज को भले ही पसंद करें लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से यह रिवाज बेहद खतरनाक है.  लेट शादी होने से प्रेग्नेंसी में भी देरी होती है, जिससे महिला और बच्चों दोनों को कई समस्याएँ होती है। प्रेग्नेंसी की सही उम्र 25 से 30 वर्ष है। इसके उपरान्त गर्भधारण होने से बच्चा होने के बाद माँ के शरीर को संभलने में काफी समय लगता है। साथ ही साथ अधिक उम्र में शादी बांझपन का बहुत बड़ा खतरा बन कर सामने आ रही है। इससे गर्भ में ठहरे बच्चे में जीन संबंधी विकृतियाँ ज्यादा होने लगी हैं।  लेट मैरिज के बाद गर्भ में ठहरे बच्चे के गिरने के खतरे क़ि भी अनदेखी नहीं क़ि जा सकती है. इसी विषय पर बात करते हुए एक बार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की एसोसियेट प्रोफेसर डॉ. नीता ने कहा था क़ि  शादी की उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती चली जाती है, त्यों-त्यों प्रजनन की खिड़की बंद होती चली जाती है। आधुनिक जीवनशैली,  तनाव और प्रदूषण की वजह से प्रजनन शक्ति पर बड़ा खतरा मंडराने लगा है। हर चार में से एक महिला बाँझ मिल रही हैं।  अब तो अधिक उम्र में शादी से महिलाओं की बच्चेदानी में ट्यूमर भी होने लगे हैं।  अधिक उम्र में प्रेग्नेंट होने से नॉर्मल डिलीवरी के अवसर  बहुत कम हो जाते हैं और ऑपरेशन के संभावना  बढ़ जाती है.

कहने का मतलब साफ़ है क़ि जहाँ एक तरफ देर से शादी के चंद फायदें हैं वहीँ दूसरी तरफ नुकसान भी हैं. हालाकिं इस बात की वकालत करना जल्दबाजी होगा क़ि यह रिवाज कितना प्रांसगिक है और कितना नहीं. बुधजीवियों का एक बड़ा वर्ग इसमें कोई बुराई नहीं देखता लेकिन  स्‍त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ इस रिवाज को महिलाओं के लिए खतरनाक मानते हैं.

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