अमित बृज
तुम्हारी कब्र पर, मैं फातिहा पढ़ने नहीं आऊंगा निदा। मुझे मालूम है, तुम मर नहीं सकते। तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिसने उड़ाई है, वो झूठा है। वो तुम हो ही नहीं सकते। कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से हिल के टूटा होगा। मैं अकेला नहीं हूं निदा, जो तुम्हारी मौत को अफवाह मान बैठा हूँ। तुम्हारी "चिमटा फुकनी जैसी माँ" भी यही मानती है कि तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिक्खा है, वो झूठा है। तुम्हारे उस बच्चे को भी यकीन नहीं है निदा, जो इसलिए रो रहा है कि निदा आएगा और उसे हंसाएगा।
मैं जानता हूं निदा, मैं होश में नहीं हूं और मेरी तरह तुम्हारे किरदार भी कैद हैं तुम्हारे आशिकी की तिलिस्मी दुनिया में। तुम दुनिया का मिट्टी-सोना सब पीछे छोड़कर जा चुके हो लेकिन निदा, तुम जिन्दा हो। तुम जिन्दा हो मीर की सादग़ी में, कबीर की सधुक्कड़ी में, ग़ालिब की गहराई में और तुलसी का अध्यात्म में। तुम मुझ में ज़िन्दा हो निदा ।
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एक ऐसा शायर, जिसने वही लिखा जो जिया। अपने वक्त की तमाम दरो दीवारों को चंद शब्दों से हटाता रहा, तोड़ता रहा और इंसानियत की ऐसी दुनिया रचने की कोशिश में लगा रहा, जो मस्जिदों से बाहर थी, मंदिरों से दूर थी और गिरिजाघरों की दीवारों से अलग थी। निदा फाजली ने कुछ ऐसी ही पंक्तियां लिखीं हाजिर है। --
(1)
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी,
सुबह से शाम तक बोझ ढ़ोता हुआ,
अपनी लाश का खुद मज़ार आदमी,
हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,
हर तरफ आदमी का शिकार आदमी,
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी,
जिन्दगी का मुक्कदर सफ़र दर सफ़र,
आखिरी सांस तक बेकरार आदमी
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मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहां हैं लोग
रोज़ मैं चांद बन के आता हूं
दिन में सूरज सा जगमगाता हूं
खनखनाता हूं मां के गहनों में
हंसता रहता हूं छुप के बहनों में
मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में
मेरी तस्वीर आंख का आंसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू
मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग
मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूं
मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूं
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बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए
दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए
ये तो चेहरे की शबाहत हुई तक़दीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए
ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए
कोई आवाज़ तो जंगल में दिखाए रस्ता
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए
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मैं रोया परदेस में भींगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।
सातों दिन अल्लाह के क्या मंगल क्या पीर।
क्या मंगल क्या पीर
जिसदिन सोये देर तक भूखा रहे फकीर।।
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नयी-नयी आंखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।
मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।
मेरे आंगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है ।
चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने सांचे हैं
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है।
हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।

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