प्रारंभिक लक्षण
गर्भवती महिलायों को गर्भ का पता चलता है जब महावारी रुक जाती है , आजकल तो सब स्त्रियाँ पहले से ही अपने साथ कार्ड टेस्ट की किट लेकर आती हैं | दो लाइनें आने का मतलब सब को पता है कि पोजिटिव है | जब वह हमरे पास आती हैं तब अक्सर जी मिचलाना , चक्कर आना , पेट दर्द ,शरीर गर्म रहना और कब्ज़ की शिकायत लेकर आती हैं | फिर हम उनकी हिस्ट्री लेते हैं कि पहला बच्चा है या दूसरा , पहले वाले बच्चे कितने बड़े हैं एवं वह नॉर्मल डिलिवरी से पैदा हुए हैं या सिज़रियन से ? इससे पहले कोई अबोर्शन तो नहीं हुआ है ? EDD ( Expected date of delivery ) यानि कि डिलिवरी की तारीख का पता करने के लिए LMP ( Last menstrual period ) यानि कि आखिरी महावारी के पहले दिन में ९ महीने और ७ दिन जोड़े जाते हैं | अल्ट्रासाउंड से भी यह तारीख पता की जा सकती है |
हिस्ट्री :
उनकी फेमिली हिस्टरी ली जाती है जैसे कि डायबिटीज़, उक्त रक्तचाप इत्यादि | फिर उनकी हिस्ट्री लेते हैं कि कोई थाईरोइड की प्रोब्लम तो नहीं है या कभी कोई दौरा वगैरह तो नहीं आया है ? या कोई लम्बी बीमारी जैसे कि खांसी , बुखार , जोडों में दर्द , छाती में दर्द या दमे की बीमारी तो नहीं है ?
जांच :
फिर उनका वजन नापा जाता है , रक्त चाप यानि कि ब्लड प्रेशर लिया जाता है | उनके हार्ट और लंग्स देखते हैं यानि कि स्टेथोस्कोप से सुनते हैं | उनकी आंख देखते हैं कि एनीमिया तो नहीं है ?
लेबोरेट्री जांच :
फिर उन्हें जांच के लिए लैब में भेजते हैं | हिमोग्लोबिन , ब्लड ग्रुप , एच आई वी , रक्त में शुगर , हिपेटाईटीस बी , पेशाब की जांच
और ब्लड ग्रुप वैगेरह जांचें जो कि जरुरी हैं करवाई जाती हैं |
खान पान , आराम एवं दवा :
पहले के कुछ दिनों तक यानि कि तीन महीनों तक जिसे कि फर्स्ट ट्राईमेस्टर कहते हैं , कम से कम दवाएं देते हैं जैसे कि फोलिक एसिड , डोक्सिनेट , वोमिनोस या प्रेग्नीडोक्सिन जो कि जी मिचलाने या उल्टी के लिए दी जाती हैं |
खान पान का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए जैसे कि तली चीज़ें , मिर्च मसाले ज्यादा न खाएं | दूध , दही फल हरी सब्जियों का सेवन करें | अक्सर महिलाओं की सासू माएं पीछे पड़ जाती हैं कि यह कुछ नहीं खाती और ज़बरदस्ती करती हैं | उन्हें समझाना पड़ता है कि पहले तीन महीने तक जो मर्ज़ी खाएं क्यूंकि शरीर में इतने तत्व होते हैं कि वह बच्चे की आवश्यकता को पूरा करें | तीन माह के उपरांत आयरन की गोलियों की आवश्यकता होती है | इसलिए जो मन करता है खाने देना चाहिए | अधिकांश महिलाओं में अधिक उल्टियों की शिकायत रहती है ऐसी स्थिति को '' हाईपरएमेसिस ग्रेवीडेराम'' कहते हैं | इससे बचने के लिए सुबह ब्रश करने के साथ ही २ बिस्कुट खा लेने चाहियें |
पानी खूब पीना चाहिए , फलों का जूस , सूप इत्यादि का सेवन करें वरना कब्ज़ की शिकायत रहती है |
दो घंटे दिन में आराम एवं ८ घंटे रात में आराम जरुरी है | पहले तीन महीने में अधिक वजन न उठाएं एवं लम्बे सफ़र से बचें तो अच्छा है |
एंटीनेटल चेकअप :
६ से ८ हफ्ते का प्रसव हो तब एक बार अल्ट्रासाउंड या सोनोग्राफी करवा सकते हैं , इससे पता चलता है की शिशु की धड़कन है या नहीं | आमतौर पर महिलाओं को डर रहता है कि ज्यादा सोनोग्राफी करवाने से शिशु या भ्रूण को खतरा तो नहीं होता ? जवाब है कि नहीं , एक्स रे से खतरा होता है , सोनोग्राफी से नहीं | इसका मतलब यह नहीं है कि हर महीने करवाई जाए | जब जब आवश्यक हो तब ही करवाएं | आजकल तो बिना डाक्टारी सलाह के सब लोग पहले से ही यह जांच करवाकर साथ में रिपोर्ट लिए आते हैं , वो भी बिना योग्यता प्राप्त डॉ की |
यदि थोडा भी रक्त स्त्राव हो तो तुंरत डॉक्टर के पास जाएँ और इलाज़ करवाएं |
३ से ६ माह को सेकेंड ट्राई मेस्टर कहते हैं | इस दौरान आयरन की गोलियां ( कम से कम ६० मिलीग्राम एलीमेंटल आयरन गोलियों में होना चाहिए ) दी जाती हैं | साथ में भरपूर मात्र में हरी सब्जियां , फल , दूध , दही , दालें लेनी चाहियें | घूमना फिरना हल्का फुल्का व्यायाम भी करना चाहिए | एक एंटी नेटल कार्ड बनाया जाता है जिसमें टेटनस के इंजेक्शन और हिमोग्लोबिन , ब्लड ग्रुप , वजन , रक्त चाप वगैरह लिखा रहता है | हर माह स्त्री को बुलाया जाता है , सातवें महीने में हर १५ दिनों में , ८ महीने के बाद हर हफ्ते बुलाया जाता है | वजन पूरे ९ महीनों में तकरीबन १० किलो बढ़ना चाहिए | यानि कि १ किलो हर महीने में और .१ किलो हर हफ्ते |
शरीर में सूजन अक्सर ६ महीने या उसके बाद दिखनी शुरू होती है | ऐसी स्थिति में नियमित रक्त चाप का नाप , पेशाब में अल्बूमिन की जाँच की जाती है , इसे टोक्सिमिया ( पी ई टी ) कहते हैं | यदि रक्त चाप ज्यादा है तो दवा दी जाती है , बच्चे को सोनोग्राफी के द्वारा और हाथ से पेट की जांच करके देखा जाता है कि वह ठीक से बढ़ रहा है कि नहीं ? हर बार शिशु की धड़कन डॉप्लर से या फीटोस्कोप से या स्टेथोस्कोप से सुनी जाती है |
अस्पताल में प्रसव के फायदे :
हॉस्पिटल में प्रसव करवाने के कई फायदे हैं | जच्चा बच्चा सामन्य रूप से नॉर्मल और स्वस्थ हों क्यूंकि वहां हर प्रकार की सुविधाएं होती हैं जैसे कि खून चढाने की सुविधा , बच्चे को टीके लागने कि सुवधा , नर्सरी में रखने कि सुविधा | गावों में आजकल भी कई जगह दाई या मिडवाइफ से प्रसव करवाया जाता है | कई गावों के लोगों का मानना है कि हॉस्पिटल में बहुत खर्चा होता है पर वह इस बात से अनजान रहते हैं कि आजकल कई नर्सें तरह तरह की इन्जेक्शन्स जैसे की ऑक्सीटोसिन एवं मिसों प्रोस्ट की गोलियां और सर्वी प्राइम जेल शरीर में रख देती हैं बिना यह सोचे समझे कि उसका नुक्सान भी हो सकता है और अक्सर ऐसे केस बिगड़ कर हॉस्पिटल में आते हैं और अफरा तफरी मच जाती है , कई बार रक्त की व्यवस्था न होने पर केस बिगड़ भी सकता है और जच्चा को खतरा हो सकत है | गाँव में दस्ताने भी उपयोग में नहीं लाये जाते इससे एच आई वी जैसी बीमारियाँ फैलती हैं |
अक्सर बच्चा फंसा रहता है या फिर गर्भ नाल अन्दर रह जाती है | गाँव में एपीसीओटौमी यानि कि टाँके लगाये बिना ही खींचा तानी के द्वारा बच्चा निकला जाता है जिससे कि आगे जाकर प्रोलेप्स यानि कि शरीर का नीचे कि तरफ आना जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है | मैं गाँवों कि बात इसलिए कर रही हूँ क्यूंकि आज भी हमारे देश में अधिकांश प्रसव गावों में होते हैं |
टूटी फूटी सड़कें , साधन की व्यवस्था न होने पर अधिकांश महिलाएं रास्ते में या हॉस्पिटल में आते आते दम तोड़ देती हैं | मात्र मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आज भी एनीमिया या खून कि कमी है | मुझे राहुल गांधी से बड़ी उम्मीदें हैं | पर इसके लिए लोगों की मानसिकता को बदलना बहुत जरुरी है | शिक्षा का इसमें बहुत बड़ा योगदान है |
गाँव में कोई केमिस्ट भी यदि देखता है कि स्त्री के शरीर में सूजन है या और कोई बात तो उसका फ़र्ज़ है की वह उसे बिना सलाह के दवा न दे और उसे समझाए कि डॉक्टर की सालाह ले |
प्रसव उपरान्त या पोस्ट नेटल :
प्रसव के उपरांत यदि माता आर एच नेगटिव है तो उसे एंटी डी का टीका लगाना पड़ता है |
४० दिन तक का समय पोस्ट नेटल कहलाता है | इसमें जच्चा को खूब पानी पिलायें | बड़ी बूढी औरतें पानी नहीं देतीं | उनका मानना है कि इससे पेट बाहर आ जाता है और वह सिर्फ घी खिलाने में विशवास रखती हैं | इनमें स्पर्धा रहती है कि मैंने अपनी बहु को १० किलो घी खिलाया , तुम्हारी बहु से ज्यादा | इन स्त्रियों को कौन समझाए कि घी से कुछ नहीं होता | हरी सब्जियां , दूध , दलिया एवं हल्का फुल्का पौष्टिक भोजन ही बेहतर है | व्यायाम भी बहुत जरुरी है | बिस्तर पर पड़े रहने से थ्रोम्बोफ्लेबाईटिस जैसी भयानक बीमारी का सामना करना पड़ सकता है |
स्तनपान
बच्चे को जहाँ तक हो सके माँ का दूध ही पिलायें | पहले २-३ दिन आने वाले दूध को कोलोस्ट्रम कहते हैं, यह बहुत लाभदायक होता है |
गर्भ निरोध
प्रसव के उपरांत कई महीनों तक महावारी नहीं आती इसे लेक्टेशनल एमीनोरिया कहते हैं | इस दौरान गर्भ निरोधक तरीके अपनाएं वर्ना गर्भ ठहर जाता है |
चलते चलते बस इतना ही कहना चाहूंगी कि प्रेगनेंसी कोई बीमारी नहीं है यह शरीर की एक नॉर्मल प्रक्रिया है इसलिए इसे नोर्मल तरीके से लें और अपना दिलो --दिमाग स्वस्थ रखें जिससे कि जच्चा एवं बच्चा दोनों ही स्वस्थ हों |
गर्भवती महिलायों को गर्भ का पता चलता है जब महावारी रुक जाती है , आजकल तो सब स्त्रियाँ पहले से ही अपने साथ कार्ड टेस्ट की किट लेकर आती हैं | दो लाइनें आने का मतलब सब को पता है कि पोजिटिव है | जब वह हमरे पास आती हैं तब अक्सर जी मिचलाना , चक्कर आना , पेट दर्द ,शरीर गर्म रहना और कब्ज़ की शिकायत लेकर आती हैं | फिर हम उनकी हिस्ट्री लेते हैं कि पहला बच्चा है या दूसरा , पहले वाले बच्चे कितने बड़े हैं एवं वह नॉर्मल डिलिवरी से पैदा हुए हैं या सिज़रियन से ? इससे पहले कोई अबोर्शन तो नहीं हुआ है ? EDD ( Expected date of delivery ) यानि कि डिलिवरी की तारीख का पता करने के लिए LMP ( Last menstrual period ) यानि कि आखिरी महावारी के पहले दिन में ९ महीने और ७ दिन जोड़े जाते हैं | अल्ट्रासाउंड से भी यह तारीख पता की जा सकती है |
हिस्ट्री :
उनकी फेमिली हिस्टरी ली जाती है जैसे कि डायबिटीज़, उक्त रक्तचाप इत्यादि | फिर उनकी हिस्ट्री लेते हैं कि कोई थाईरोइड की प्रोब्लम तो नहीं है या कभी कोई दौरा वगैरह तो नहीं आया है ? या कोई लम्बी बीमारी जैसे कि खांसी , बुखार , जोडों में दर्द , छाती में दर्द या दमे की बीमारी तो नहीं है ?
जांच :
फिर उनका वजन नापा जाता है , रक्त चाप यानि कि ब्लड प्रेशर लिया जाता है | उनके हार्ट और लंग्स देखते हैं यानि कि स्टेथोस्कोप से सुनते हैं | उनकी आंख देखते हैं कि एनीमिया तो नहीं है ?
लेबोरेट्री जांच :
फिर उन्हें जांच के लिए लैब में भेजते हैं | हिमोग्लोबिन , ब्लड ग्रुप , एच आई वी , रक्त में शुगर , हिपेटाईटीस बी , पेशाब की जांच
और ब्लड ग्रुप वैगेरह जांचें जो कि जरुरी हैं करवाई जाती हैं |
खान पान , आराम एवं दवा :
पहले के कुछ दिनों तक यानि कि तीन महीनों तक जिसे कि फर्स्ट ट्राईमेस्टर कहते हैं , कम से कम दवाएं देते हैं जैसे कि फोलिक एसिड , डोक्सिनेट , वोमिनोस या प्रेग्नीडोक्सिन जो कि जी मिचलाने या उल्टी के लिए दी जाती हैं |
खान पान का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए जैसे कि तली चीज़ें , मिर्च मसाले ज्यादा न खाएं | दूध , दही फल हरी सब्जियों का सेवन करें | अक्सर महिलाओं की सासू माएं पीछे पड़ जाती हैं कि यह कुछ नहीं खाती और ज़बरदस्ती करती हैं | उन्हें समझाना पड़ता है कि पहले तीन महीने तक जो मर्ज़ी खाएं क्यूंकि शरीर में इतने तत्व होते हैं कि वह बच्चे की आवश्यकता को पूरा करें | तीन माह के उपरांत आयरन की गोलियों की आवश्यकता होती है | इसलिए जो मन करता है खाने देना चाहिए | अधिकांश महिलाओं में अधिक उल्टियों की शिकायत रहती है ऐसी स्थिति को '' हाईपरएमेसिस ग्रेवीडेराम'' कहते हैं | इससे बचने के लिए सुबह ब्रश करने के साथ ही २ बिस्कुट खा लेने चाहियें |
पानी खूब पीना चाहिए , फलों का जूस , सूप इत्यादि का सेवन करें वरना कब्ज़ की शिकायत रहती है |
दो घंटे दिन में आराम एवं ८ घंटे रात में आराम जरुरी है | पहले तीन महीने में अधिक वजन न उठाएं एवं लम्बे सफ़र से बचें तो अच्छा है |
एंटीनेटल चेकअप :
६ से ८ हफ्ते का प्रसव हो तब एक बार अल्ट्रासाउंड या सोनोग्राफी करवा सकते हैं , इससे पता चलता है की शिशु की धड़कन है या नहीं | आमतौर पर महिलाओं को डर रहता है कि ज्यादा सोनोग्राफी करवाने से शिशु या भ्रूण को खतरा तो नहीं होता ? जवाब है कि नहीं , एक्स रे से खतरा होता है , सोनोग्राफी से नहीं | इसका मतलब यह नहीं है कि हर महीने करवाई जाए | जब जब आवश्यक हो तब ही करवाएं | आजकल तो बिना डाक्टारी सलाह के सब लोग पहले से ही यह जांच करवाकर साथ में रिपोर्ट लिए आते हैं , वो भी बिना योग्यता प्राप्त डॉ की |
यदि थोडा भी रक्त स्त्राव हो तो तुंरत डॉक्टर के पास जाएँ और इलाज़ करवाएं |
३ से ६ माह को सेकेंड ट्राई मेस्टर कहते हैं | इस दौरान आयरन की गोलियां ( कम से कम ६० मिलीग्राम एलीमेंटल आयरन गोलियों में होना चाहिए ) दी जाती हैं | साथ में भरपूर मात्र में हरी सब्जियां , फल , दूध , दही , दालें लेनी चाहियें | घूमना फिरना हल्का फुल्का व्यायाम भी करना चाहिए | एक एंटी नेटल कार्ड बनाया जाता है जिसमें टेटनस के इंजेक्शन और हिमोग्लोबिन , ब्लड ग्रुप , वजन , रक्त चाप वगैरह लिखा रहता है | हर माह स्त्री को बुलाया जाता है , सातवें महीने में हर १५ दिनों में , ८ महीने के बाद हर हफ्ते बुलाया जाता है | वजन पूरे ९ महीनों में तकरीबन १० किलो बढ़ना चाहिए | यानि कि १ किलो हर महीने में और .१ किलो हर हफ्ते |
शरीर में सूजन अक्सर ६ महीने या उसके बाद दिखनी शुरू होती है | ऐसी स्थिति में नियमित रक्त चाप का नाप , पेशाब में अल्बूमिन की जाँच की जाती है , इसे टोक्सिमिया ( पी ई टी ) कहते हैं | यदि रक्त चाप ज्यादा है तो दवा दी जाती है , बच्चे को सोनोग्राफी के द्वारा और हाथ से पेट की जांच करके देखा जाता है कि वह ठीक से बढ़ रहा है कि नहीं ? हर बार शिशु की धड़कन डॉप्लर से या फीटोस्कोप से या स्टेथोस्कोप से सुनी जाती है |
अस्पताल में प्रसव के फायदे :
हॉस्पिटल में प्रसव करवाने के कई फायदे हैं | जच्चा बच्चा सामन्य रूप से नॉर्मल और स्वस्थ हों क्यूंकि वहां हर प्रकार की सुविधाएं होती हैं जैसे कि खून चढाने की सुविधा , बच्चे को टीके लागने कि सुवधा , नर्सरी में रखने कि सुविधा | गावों में आजकल भी कई जगह दाई या मिडवाइफ से प्रसव करवाया जाता है | कई गावों के लोगों का मानना है कि हॉस्पिटल में बहुत खर्चा होता है पर वह इस बात से अनजान रहते हैं कि आजकल कई नर्सें तरह तरह की इन्जेक्शन्स जैसे की ऑक्सीटोसिन एवं मिसों प्रोस्ट की गोलियां और सर्वी प्राइम जेल शरीर में रख देती हैं बिना यह सोचे समझे कि उसका नुक्सान भी हो सकता है और अक्सर ऐसे केस बिगड़ कर हॉस्पिटल में आते हैं और अफरा तफरी मच जाती है , कई बार रक्त की व्यवस्था न होने पर केस बिगड़ भी सकता है और जच्चा को खतरा हो सकत है | गाँव में दस्ताने भी उपयोग में नहीं लाये जाते इससे एच आई वी जैसी बीमारियाँ फैलती हैं |
अक्सर बच्चा फंसा रहता है या फिर गर्भ नाल अन्दर रह जाती है | गाँव में एपीसीओटौमी यानि कि टाँके लगाये बिना ही खींचा तानी के द्वारा बच्चा निकला जाता है जिससे कि आगे जाकर प्रोलेप्स यानि कि शरीर का नीचे कि तरफ आना जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है | मैं गाँवों कि बात इसलिए कर रही हूँ क्यूंकि आज भी हमारे देश में अधिकांश प्रसव गावों में होते हैं |
टूटी फूटी सड़कें , साधन की व्यवस्था न होने पर अधिकांश महिलाएं रास्ते में या हॉस्पिटल में आते आते दम तोड़ देती हैं | मात्र मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आज भी एनीमिया या खून कि कमी है | मुझे राहुल गांधी से बड़ी उम्मीदें हैं | पर इसके लिए लोगों की मानसिकता को बदलना बहुत जरुरी है | शिक्षा का इसमें बहुत बड़ा योगदान है |
गाँव में कोई केमिस्ट भी यदि देखता है कि स्त्री के शरीर में सूजन है या और कोई बात तो उसका फ़र्ज़ है की वह उसे बिना सलाह के दवा न दे और उसे समझाए कि डॉक्टर की सालाह ले |
प्रसव उपरान्त या पोस्ट नेटल :
प्रसव के उपरांत यदि माता आर एच नेगटिव है तो उसे एंटी डी का टीका लगाना पड़ता है |
४० दिन तक का समय पोस्ट नेटल कहलाता है | इसमें जच्चा को खूब पानी पिलायें | बड़ी बूढी औरतें पानी नहीं देतीं | उनका मानना है कि इससे पेट बाहर आ जाता है और वह सिर्फ घी खिलाने में विशवास रखती हैं | इनमें स्पर्धा रहती है कि मैंने अपनी बहु को १० किलो घी खिलाया , तुम्हारी बहु से ज्यादा | इन स्त्रियों को कौन समझाए कि घी से कुछ नहीं होता | हरी सब्जियां , दूध , दलिया एवं हल्का फुल्का पौष्टिक भोजन ही बेहतर है | व्यायाम भी बहुत जरुरी है | बिस्तर पर पड़े रहने से थ्रोम्बोफ्लेबाईटिस जैसी भयानक बीमारी का सामना करना पड़ सकता है |
स्तनपान
बच्चे को जहाँ तक हो सके माँ का दूध ही पिलायें | पहले २-३ दिन आने वाले दूध को कोलोस्ट्रम कहते हैं, यह बहुत लाभदायक होता है |
गर्भ निरोध
प्रसव के उपरांत कई महीनों तक महावारी नहीं आती इसे लेक्टेशनल एमीनोरिया कहते हैं | इस दौरान गर्भ निरोधक तरीके अपनाएं वर्ना गर्भ ठहर जाता है |
चलते चलते बस इतना ही कहना चाहूंगी कि प्रेगनेंसी कोई बीमारी नहीं है यह शरीर की एक नॉर्मल प्रक्रिया है इसलिए इसे नोर्मल तरीके से लें और अपना दिलो --दिमाग स्वस्थ रखें जिससे कि जच्चा एवं बच्चा दोनों ही स्वस्थ हों |


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