आज का जापान वैसा नहीं है जिसे हमने कल की किताबों में देखा-पढ़ा था!
जापान की यात्रा के दौरान पूर्वी एवं पश्चिमी सभ्यताओं के बीच कमाल का संतुलन दिखाई दिया तो परंपरा और आधुनिकता के बीच एक बेचैन सा खिंचाव भी। जापान की खूबसूरती, वहां के जनजीवन की विशिष्टता और यहां तक कि वहां की सामाजिक समस्याएं भी बाकी देशों से अलग और हमारे लिए अनजानी हैं।
तोक्यो युनिवर्सिटी ऑफ फोरेन स्टडीज़ के आमंत्रण पर जापान की यात्रा पर रवाना होने से पहले किताबों और पत्र.पत्रिकाओं में पढ़े वहां के कुछ रूमानी से प्रतीक मेरे मन में थे। जैसे कि वहां के बौद्ध मठ-मंदिर,
जापानी राजवंश, बीते जमाने के समुराई योद्धा, नए जमाने के सूमो पहलवान, किमोनो में लिपटीं महिलाएं, अनूठे हाथ-पंखे, जापानी गुङ़ियाएं, बहुचर्चित गीशा, माउंट फूज़ी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जापान प्रवास, एक नन्हा सा देश होकर भी विश्व की नंबर दो आर्थिक महाशक्ति होने का चमत्कार, हिरोशिमा और नागासाकी की दुखद यादें आदि। और फिर वे फिल्मी गाने भी तो हैं, जो हमारी यादों में बसे हैं- मेरा जूता है जापानी और सायोनारा-सायोनारा!अलबत्ता, यह कभी नहीं सोचा था कि हमारी हिंदी भाषा से अपने संबंधों को लेकर भी जापान किसी किस्म का गौरव महसूस करता होगा। जापान में हिंदी के अध्यापन और प्रसार में जुटे विद्वान प्रोफेसर सुरेश ऋतुपर्ण ने जब बताया कि जापान में हिंदी के अध्यापन के सौ साल पूरे हो गए हैं तो आधुनिक भारत और जापान के संबंधों की गहराई का अहसास हुआ। जापान विश्वविद्यालय में भारतीय अध्ययन की शुरूआत तो 1879 में ही हो गई थी, यानी कोई 130 साल पहले, जब भारत ब्रिटिश राज के अधीन हुआ करता था। यह 1868 में जापान के स्व-निर्वासन से बाहर आने के बाद की बात है, यानी मेईजी पुनर्स्थापन (सम्राट मेईजी के रेस्टोरेशन) के बाद की।
अपने एक सप्ताह के जापान प्रवास के दौरान अनेक बार महसूस होता रहा कि भारत, भारतीयता और भारतभाषा से जापानियों का संबंध महज उत्सुकता तक सीमित नहीं है। कहीं वह भगवान बुद्ध के जन्मस्थान के प्रति गहरी श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है तो कहीं हमारी आर्थिक प्रगति तथा तकनीकी उपलब्धियों की प्रशंसा भरी स्वीकारोक्ति के रूप में। मैंने अनेक अवसरों पर पाया कि भारत के प्रति जापानियों के मन में स्वाभाविक सा लगाव या 'सॉफ्ट कॉर्नर' ज़रूर है।
कहां गए सब लोग?
सुबह-सुबह हम एअर इंडिया के विमान से जापान की राजधानी तोक्यो पहुंचे तो देखा कि नरीता हवाई अड्डा तो एकदम सूना पड़ा है। न यात्रियों की भीड़, न सुरक्षा अधिकारियों की पंक्तियां और न बदहवासी की हालत में इधर.उधर भटकते हवाई अड्डा अधिकारी। जिज्ञासा हुई कि सब लोग आखिर कहां चले गए और क्यों? बाद में पता चला कि यह शांत सूनापन उस स्वत:स्फूर्त अनुशासन का हिस्सा है जो दुनिया में सर्वाधिक घनी आबादी वाले तोक्यो शहर (वहां तीन करोड़ से अधिक लोग रहते हैं) के लोगों ने अपना लिया है। दिल्ली की तुलना में लगभग ढाई गुना आबादी वाला शहर इतना शांत और सूना हो सकता है, यह मेरी कल्पना से बाहर था। लेकिन यही सच था।तोक्यो के बाजारों में, सड़कों पर, पार्कों में दिन के समय इक्का.दुक्का लोग ही दिखाई देते हैं। दिन में अगर वे दिखेंगे तो लोकल ट्रेन या ट्राम में और शाम को नजर आएंगे तो सुपरमार्केट में, रेस्तराओं में, मनोरंजन के स्थलों पर। दिन में सबके सब अपने दफ्तरों में या घरों में होंगे। दुनिया की सबसे बड़ी और प्रसिद्ध ऑटोमोबाइल कंपनियां जापानी हैं लेकिन सड़कों पर ट्रैफिक जाम की कोई समस्या नहीं। सब की सब सड़कें खाली। यह चमत्कार कैसे हुआ? जापानियों ने निजी वाहनों को हतोत्साहित करते हुए सावर्जनिक यातायात को बढ़ावा देकर यह चमत्कार कर दिखाया। दिल्ली में घर से दफ्तर तक महज चार किलोमीटर की दूरी में एकाधिक स्थानों पर ट्रैफिक जाम से दोचार होने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए तो यह सपना देखने जैसा था। मैं अनेक बार सोचता रहा कि क्या हम इस अनुशासन, स्वच्छंदता से विचरण करने की आजादी और समस्याहीनता को अपने यहां आयात नहीं कर सकते?
सिर्फ यही क्यों, हमारे आयात करने के लिए तो और भी बहुत कुछ है जापान में। उनका शालीन व्यवहार, दूसरों की निजता का सम्मान, किसी भी काम को बेहद लगन और मेहनत के साथ पूर्णता तक ले जाने की प्रवृत्ति,अपराधों का लगभग अभाव, अपने देश, संस्कृति और भाषा के प्रति गहरा सम्मान आदि आदि। जापान में अंग्रेजी की स्थिति शायद वैसी ही है जैसी हमारे यहां पुर्तगाली या कोरियाई भाषा की होगी। एक जापानी व्यक्ति किसी अन्य जापानी से अंग्रेजी में वार्तालाप करने की सोच भी नहीं सकता। जापानी ही क्यों, वे तो किसी विदेशी से भी अंग्रेजी में बात नहीं करते। अपनी भाषा के प्रति गौरव का भाव रखने वाला कोई व्यक्ति भला किसी विदेशी भाषा में क्यों व्यवहार करना चाहेगा? आपको जापान के साथ व्यापार करना है, वहां व्यवसाय स्थापित करना है, नौकरी करनी है या घूमने जाना है तो जापानी सीखिए। जापानी भाषा के प्रति उनका यह आत्मविश्वास भरा गौरव भाव और हिंदी के प्रति हम बहुत सारे भारतीयों की हीनभावना दो विपरीत ध्रुवों के समान प्रतीत होते हैं।अंग्रेजी तभी जब अपरिहार्य हो
प्रख्यात गीतकार कुंवर बेचैन और मैं जब तोक्यो से दिल्ली लौटने के लिए बस का इंतजार कर रहे थे तो मैंने वहां पंक्तिबद्ध खड़े पच्चीस-तीस यात्रियों से पूछा कि क्या आपमें से कोई अंग्रेजी जानता है, यदि हां तो कृपया बताएं कि क्या नरीता हवाई अड्डे के लिए बस यहीं से मिलती है? जवाब आना तो दूर कोई मेरे सवाल को समझा तक नहीं। वह अलग बात है कि थोड़ी देर बाद वहां टिकट बांटने वाले व्यक्ति ने मुझसे अंग्रेजी में सवाल किया कि क्या आपके पास रिज़र्वेशन है? शायद उसे लगा होगा कि मैं थोड़ी बहुत जापानी भाषा जानता हूं लेकिन अंग्रेजी में बोलना पसंद करता हूं। कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद उसे अहसास हो गया कि मैं जापानी बिल्कुल नहीं जानता तो उसने अंग्रेजी में एक-दो वाक्य बोलना जरूरी समझा। इसके बरक्स जरा सोचिए कि हम क्या करते हैं?
अंग्रेजी प्रेम के ऐसे कुछ अनुभव हमें जापान में भी हुए लेकिन भारतीयों के द्वारा, न कि जापानियों के द्वारा। हमारे दूतावास के कुछ बड़े अधिकारी इसी श्रेणी में आते थे। जापानी लोग तो भारतीयों को अंग्रेजी बोलते देखकर हिंदी की उपेक्षा पर हमारी ही तरह दुख, विवशता और लज्जा की मूरत बन जाते थे। यदि आप जापान में हैं तो जापानी बोलिए या फिर अपनी मातृभाषा हिंदी। अंग्रेजी का प्रयोग तभी कीजिए जब वह अपरिहार्य हो, जैसे कि हवाई अड्डे पर, मुद्रा विनिमय केंद्र पर या विदेशी पयर्टकों से संपर्क के दौरान।
विदेशी भूमि के अनूठे संस्कार
समय की पाबंदी जापानियों के जीवन का अनिवार्य अंग है। तोक्यो विश्वविद्यालय के जिस कार्यक्रम में मुझे हिस्सा लेना था उसका उद्घाटन 12 दिसंबर को अपराह्न ढाई बजे होना था और ठीक उसी समय हुआ। जापान इस मायने में हमसे बहुत अलग है। वहां समय की पाबंदी जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है कोई शाबासी की बात नहीं। कोई आए या नहीं, कार्यक्रम तय समय पर ही शुरू होंगे। फिर भले ही वह मुख्य अतिथि या अध्यक्ष ही क्यों न हों। वैसे ऐसा लगता नहीं कि कोई व्यक्ति वहां देर से आता होगा। औरों की तो छोङ़िए, हर बस और हर ट्रेन एकदम ठीक समय पर आती और जाती है। तोक्यो हवाई अड्डे से जब हम अपने होटल की ओर चले तो सुबह 9:40 की बस ठीक 9:35 पर आ गई और 9:40 होते ही चल पड़ी। इतना ही नहीं, उसे अगले ठिकानों पर जितने बजे पहुंचना था, ठीक उतने बजे ही पहुंची। न एक मिनट पहले, न एक मिनट बाद।
समय की पाबंदी का अर्थ सिर्फ देर से न आना ही नहीं है। समय से पहले आना भी गलत समझा जाता है। वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार गंगाप्रसाद 'विमल' बता रहे थे कि कुछ वर्ष पहले अपने एक तोक्यो दौरे में उन्होंने किसी जापानी विद्वान को भेंट के लिए आमंत्रित किया। संयोगवश, उनके जापानी मेहमान समय से कुछ पहले ही पहुंच गए। लेकिन वे इमारत से बाहर ही टहलते रहे और एकदम ठीक समय होने पर ही उनके कमरे की घंटी बजाई। विमलजी अपने कमरे से उन्हें देख रहे थे। उन्होंने पूछा- आप बाहर क्यों टहलते रहे, भीतर आ जाते? जापानी मेहमान ने कहा कि वे रास्ते में लगने वाले समय का अनुमान लगाकर एक घंटे पहले घर से निकले थे। लेकिन यात्रा में अपेक्षाकृत कम समय लगा। उन्हें समय से पहले पहुंच जाना शिष्टाचार के विरुद्ध लगा। न जाने विमलजी कितने महत्वपूर्ण कार्य में लगे हों।
जापानी लोग 'दूसरों की सुविधा' का कुछ ज्यादा ही ख्याल रखते हैं। लगभग उतना ही, जितना कि हम भारतीय'अपनी सुविधा' का रखते हैं। तोक्यो की ट्रेनों में खचाखच भीड़ होती है लेकिन क्या मजाल कि यात्रियों के हिलने.डुलने से उनके आसपास खड़े यात्रियों को धक्का लग जाए। धक्का क्या, वे तो किसी को छूने तक से बचते हैं। भारी भीड़ के बावजूद लोग बड़े आराम से डिब्बे से बाहर निकलते और घुसते हैं। ट्रेन आने से पहले हर डिब्बे के सामने यात्रियों की कतार लगी होगी जो एक-एक कर भीतर घुसेंगे। मैंने एक भी व्यक्ति को कतार तोड़कर आगे बढ़ते नहीं देखा भले ही ट्रेन निकल जाए। वे पहले यात्रियों के उतरने का इंतजार करेंगे और सभी यात्रियों के उतर जाने पर ही भीतर घुसने का सिलसिला शुरू होगा। ट्रेन मुश्किल से एक.दो मिनट रुकती है लेकिन उतने ही समय में सैंकड़ों यात्री हर स्टेशन पर उतरते और चढ़ते हैं और इस उतरने.चढ़ने के बीच का तारतम्य और सामंजस्य कभी नहीं टूटता। यही स्थिति बसों की है।
किसी को कष्ट न पहुंचे
जापानी लोग जब हमसे परिचय करते हैं तो बेहद बुनियादी बातें पूछने तक सीमित रहते हैं। वे आपकी आय,आयु, पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि पर कोई चर्चा नहीं करेंगे। क्या पता आपकी पृष्ठभूमि कमजोर हो और उसे बताते हुए आपको झेंप महसूस हो। वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे या कहेंगे जिससे आपको जरा सी भी शारीरिक या मानसिक पीड़ा हो। भारत में सड़क पर पैदल चलते हुए हम कितने आशंकित रहते हैं। जापान में अगर आप पैदल चल रहे हैं तो संभवत: सर्वाधिक सुरक्षित हैं। एक तो वहां की सड़कों पर पैदल चलने वालों और साइकिल वालों के लिए किनारे पर अलग से व्यवस्था है और दूसरे सड़क पार करने वाले लोगों को देखकर वाहन चालक दूर ही रुक जाते हैं या गति बेहद धीमी कर लेते हैं। आपके सड़क पार करने के बाद ही वे आगे बढ़ेंगे, भले ही सामने हरी बत्ती मौजूद हो। मैंने वहां के अखबारों में सड़क दुर्घटना की खबरें नहीं पढ़ी। न ही किसी भी सड़क पर दो वाहन चालकों के बीच कोई झगड़ा देखा। यह महज संयोग होगा, ऐसा नहीं लगता।
जापान की जीवनशैली पर अमेरिकी प्रभाव दिखाई देता है। हिरोशिमा-नागासाकी की विनाशलीला की दुखद यादों के बावजूद जापानी लोग पाश्चात्य तौरतरीकों को पसंद करते हैं। कुछ जापानी द्वीपों पर द्वितीय विश्वयुद्ध के छह दशक बाद आज भी अमेरिका का आधिपत्य है। युद्ध को याद कर लोग आज भी भावुक हो जाते हैं लेकिन व्यावहारिक जीवन में इन यादों से उबर गए लगते हैं। वे जीवट और संकल्प वाले लोग हैं। तभी तो परमाणु बम का आघात झेलने के दो दशक के भीतर 1964 में जापान ने बुलेट ट्रेन शुरू कर दी और उसी साल ओलंपिक खेल आयोजित कर लिए।
भारत की तरह वहां भी बुजुर्ग अपनी एशियाई पहचान को बचाए रखने के लिए कुछ चिंतित दिखते हैं जबकि नई पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति में ढल गई है। पश्चिमी भाषाओं से न्यूनतम संबंध रखते हुए भी जापानी लोग पश्चिमी संस्कृति के साथ तालमेल बिठाने में सफल रहे हैं। जापान की सड़कों पर काफी हद तक अमेरिका जैसा ही माहौल दिखता है। साफ-सुथरे मार्ग, अनुशासित चालक, साइकिल सवारों तथा पैदल लोगों के लिए अलग से व्यवस्था, समय के पाबंद वाहन, ट्रैफिक नियमों का शब्दश: पालन करते लोग और आधुनिक पाश्चात्य वस्त्रधारी लोगों की कतारें। हां, वहां की सड़कों के किनारे और इमारतों पर अंग्रेजी के बिलबोर्ड, पोस्टर या नामपट्ट दिखाई नहीं देते और अमेरिका के विपरीत, जापान में लेफ्ट हैंड ड्राइव है।
फिरंगियों जैसे ही गोरे
जापानी भी करीब.करीब अंग्रेजों और अमेरिकियों जितने ही गोरे हैं। त्वचा के रंग के आधार पर उन्हें अमेरिका,ब्रिटेन के लोगों की श्रेणी में ही माना जाएगा (किंवदंती है कि जापानी शासकों ने किसी समय पश्चिमी देशों से मैत्री की जो शर्तें रखी थीं उनमें उन्हें 'अश्वेत' या 'कलर्ड' न माने जाने की शर्त भी शामिल थी)। वैसे जापानियों को गोरा नहीं बल्कि 'पीला' माना जाता है। उनके चेहरों मोहरों पर मंगोल नस्ल की छाप है और उनके कद अमेरिकियों की तुलना में छोटे हैं। वे उनसे ज्यादा स्वस्थ और फिट भी हैं। इसे आप अतिशयोक्ति न मानें कि जिन हजारों लोगों को मैंने विभिन्न सावर्जनिक स्थलों देखा उनमें से मुश्किल से एकाध दर्जन ही मोटे होंगे। निन्यानवे प्रतिशत लोग एकदम दुबले-पतले और फिट। इसीलिए वे दुनिया के सर्वाधिक स्वस्थ लोगों में गिने जाते हैं।
वहां कपड़ों की दुकानों में हम हिंदुस्तानियों के साइज के कपड़े ही नहीं दिखते। सब कपड़े पतले-दुबले साइज वालों के लिए। जापान का 'डबल एक्स्ट्रा लार्ज' साइज यानी भारत और अमेरिका जैसे देशों का 'लार्ज' या 'मीडियम लार्ज'साइज है। मुझे अपने लिए सही आकार के कपड़े ढूंढने के लिए बहुत से परिधान स्टोरों के चक्कर काटने पड़े। जो भारतीय अपने आपको स्लिम और फिट मानते हैं उन्हें तोक्यो जाकर अहसास होता है कि वे कितने 'स्लिम' हैं (या नहीं)। जापानी लोग अपनी फिटनेस का श्रेय संतुलित, वसारहित भोजन, सक्रियता और व्यायाम को देते हैं। स्वास्थ्य के प्रति उनकी अद्वितीय जागरूकता को देखने के बाद मुझे यह तथ्य आश्चयर्जनक नहीं लगा कि वहां शतायु पार कर चुके 36 हजार से अधिक लोग मौजूद हैं और उनकी पेंशन देते रहने के मुद्दे पर सरकार उलझन में है।
अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की ही तरह तोक्यो में भी बसों में सामान रखने का काम या तो खुद ड्राइवर करता है या हर बस स्टॉप पर नियुक्त टिकट वितरक। कई बार उसे देखकर दया आती है कि बेचारा चालीस-पचास सवारियों के भारी-भरकम सामान खुद उठाता, रखता और उतारता है। सवारियां खड़ी देखती रहती हैं लेकिन वे अपना सामान खुद नहीं रख सकती। यही नियम है। जापानियों की ईमानदारी का भी एक नमूना देखिए। जब हम बसों में घूमने निकलते थे तो हमें अंदाजा नहीं होता था कि किराया कितना देता है। हम अपना पर्स जापानी बस ड्राइवर के आगे कर देते थे। वह उसमें से ठीक-ठीक किराया निकाल लेता था और मय रसीद पर्स लौटा देता था।
अगर दूर से देखिए तो तोक्यो की सड़कों पर चलते लोग अमेरिकियों जैसे ही दिखाई देते हैं। कोट, ओवरकोट, महंगे जैकेट्स, जीन्स, साफ.सुथरे शर्ट.पैंट और चमचमाती टाइयां। जैसे नए खरीदे वस्त्र पहन रखे हों। मैं भारत से रवाना होने तक यह सोचता था कि वहां मुझे 'किमोनो' पहने अनेक स्त्रियां दिखाई देंगी। लेकिन इतने दिनों में ऐसी सिर्फ एकाध महिला दिखाई दी। पारंपरिक जापानी पंखे भी इक्का-दुक्का ही दिखे।
प्रदूषण, वह क्या होता है?
एक वस्त्र जो अमेरिका में नहीं दिखता लेकिन जापान में खूब दिखता है, वह है मुंह पर लगाया जाने वाला मास्क। जापान के बाजारों, सड़कों, मॉल, ट्रेनों आदि में मास्क लगाए हुए ढेरों लोग दिखाई देते हैं। मुझे उन्हें देखकर सार्स की महामारी वाले दिन याद आ गए जब हमने भी मास्क खरीदा था। यह जापानी लोग स्वास्थ्य के मामले में बेहद जागरूक और सतर्क हैं। मैंने उनसे मास्क पहनने का कारण पूछा तो पता चला वे धूल कणों,वायु प्रदूषण और पराग कणों से होने वाली एलर्जी से बचने के लिए ऐसा करते हैं। धूल कण और प्रदूषण? मुझे सुनकर ताज्जुब हुआ क्योंकि वहां धूल और गंदगी का नामोनिशान भी दिखाई नहीं देता। वायु प्रदूषण भी ऐसा नहीं कि महसूस हो।इस बारे में एक बुजुर्ग जापानी महिला का उदाहरण उल्लेखनीय है। तोक्यो में एक सड़क के करीब जरा सा कचरा पड़ा था। वह वहां कैसे आया यह भी एक दिलचस्प शोध का विषय है. शायद किसी ने छोड़ दिया हो, या उड़ते हुए वहां आ गया हो। बहरहाल, वह महिला काफी देर से सड़क के दूसरी ओर बड़ी उलझन में खड़ी थी। वह वाहनों के निकल जाने का इंतजार कर रही थी और जैसे ही सड़क खाली हुई उसने सड़क पार की और कूड़ा उठाकर इस पार अपने घर के कूड़ेदान में डाल दिया। ऐसा करके वह बड़े सुकून के साथ घर में विलुप्त हो गई। जापानी लोग न खुद गंदगी फैलाते हैं और न ही दूसरों की फैलाई गंदगी को उठाने में जरा सी भी हिचक महसूस करते हैं। इसके लिए वे किसी शाबासी की भी उम्मीद नहीं करते।
तोक्यो में जल और ध्वनि प्रदूषण भी नहीं दिखा। वहां सड़कों के किनारों पर विशेष किस्म की दीवारें दिखाई दीं जो वाहनों की आवाजों को फैलने से रोकती हैं। सड़कों पर कानफाड़ू शोर अनुपस्थित है। सब बेहद शांत। न कहीं हॉर्न की आवाज और न ही मोबाइल फोन की घंटी बजने की। पश्चिमी देशों की तरह जापान में भी हॉर्न तभी बजाया जाता है जब कोई बड़ी विपदा आन पड़ी हो। अन्यथा, सब वाहन अनुशासन से, किसी भी रूप में दूसरे लोगों की शांति भंग किए बिना आगे बढ़ते रहते हैं। हमारे यहां लोग सावर्जनिक स्थानों पर भी मोबाइल फोन पर बेहद बेतकल्लुफ होकर बात करते हैं। तोक्यो में मुझे अपने आठ दिन के प्रवास में एक बार भी मोबाइल की घंटी सुनाई नहीं दी, न ही कोई व्यक्ति उस पर बात करते सुनाई दिया। शायद सब अपने मोबाइल फोन को वाइब्रेटर मोड में रखते हैं। ट्रेनों और मॉल्स में जहां हजारों लोग इकट्ठे होते हैं, वहां भी कोई ध्वनि प्रदूषण महसूस नहीं होता। प्रदूषण को लेकर जापानियों की यह जागरूकता संभवत: 'भाषायी मिलावट' पर भी लागू होती है।
मैं अपनी पत्नी के लिए एक लोंग जैकेट खरीदना चाहता था लेकिन किसी भी सेल्समैन या सेल्सगर्ल को यह समझाने में नाकाम रहा कि मुझे कैसा जैकेट चाहिए। वे अंग्रेजी या हिंदी नहीं जानते थे और मैं जापानी। तब मैंने चित्रों की भाषा से काम लिया और एक कागज मांगकर उस पर चित्र बना-बनाकर डिजाइन, लंबाई आदि समझाई।
चाह उसकी, जो पास नहीं
जापान में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन आदि के फैशन का प्रभाव तो साफ दिखाई देता है लेकिन विशुद्ध जापानी फैशन भी आपकी नजरों से चूक नहीं सकते। विशेषकर उनके बालों के स्टाइल। आपने जापानी कार्टून फिल्मों में पात्रों को लंबे-लंबे बालों, तीखी नोकों वाली कलमों को देखा होगा। उन्हें आप तोक्यो में साक्षात् देख सकते हैं। जापानी युवाओं को फैशन से स्पष्ट लगाव है और वे प्रयोगों से संकोच नहीं करते। आजकल वहां लंबे बालों का फैशन दिखता है। हेअर जेल लगाकर करीने से 'उलझाकर' संवारे हुए लंबे बालों की अनोखी हेअर स्टाइलें देखना मुझे बड़ी दिलचस्प लगीं। युवकों में 'मोगली' के जैसी लंबी लटों वाली स्टाइल खूब दिखी।
हम भारतीय युवक अपना व्यक्तित्व संवारने के लिए कपड़ों, जूतों, चश्मे, घड़ी आदि को शायद अधिक प्रमुखता देते हैं लेकिन जापान में सजे.संवरे, अनूठे स्टाइल में निखरे बाल फैशन का जरूरी हिस्सा हैं। मैंने कई युवतियों को सुनहरे, लाल, बैंगनी, नीले आदि चटख रंगों के बालों में भी देखा। कुछ युवतियों ने अपनी फिरंगियों जैसी गोरी त्वचा को बहुत ज्यादा 'टैनिंग' के जरिए स्वयं को हम हिंदुस्तानियों से भी ज्यादा सांवला कर लिया था। लोग ठीक कहते हैं, जिसके पास जो नहीं होता वही ज्यादा अच्छा लगता है।
बिखर रहा है समाज का तानाबाना
सामाजिकता के धरातल पर जापान की आधारशिला दरकती हुई प्रतीत होती है। लोग सामूहिकता, पारिवारिकता और सामाजिकता छोड़कर निजता, यहां तक कि एकाकीपन की ओर बढ़ रहे हैं। इस मायने में भारत की स्थिति बहुत अच्छी है। हमारे पास भले ही और कुछ न हो, संबंधों का महत्व अभी कायम है। हालांकि नई पीढ़ी धीरे.धीरे पश्चिमी प्रभाव में आ रही है लेकिन हमारे संस्कार उन्हें कुछ हद तक परिवार से जोड़े रखते हैं। जापान यात्रा के दौरान कभी कभी मैं आशंकित भी हुआ कि क्या पश्चिमी सभ्यता का 'ओवरडोज' होने पर भारत की स्थिति भी जापान जैसी ही हो जाएगी? आधुनिकता और प्रगति की कीमत पर क्या हम अपनी सामाजिकता को खोने के लिए तैयार हैं?
जापान में सामाजिक संबंधों पर भौतिकता और औपचारिकता हावी हो रही है। नागरिकों के बीच, पड़ोसियों के बीच और यहां तक कि अभिभावकों और संतानों के बीच भी बड़ा नपा-तुला सा संबंध प्रतीत होता है। हर बात बहुत सोच-समझकर बोलना, औपचारिकताओं का जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना, हर कार्य बड़ी योजना बनाकर करना॰॰ तोक्यो जैसे शहरों के यांत्रिक हो गए दैनिक जीवन और भौतिकतावादी विवशताओं के बीच संबंधों की स्वाभाविकता को ढूंढने पर निराशा हाथ आती है।
ऐसा लगता है कि जापानियों को अपनी सामाजिकता को बचाने की कोई फिक्र ही नहीं है। वे दूसरों से अधिक घुलने.मिलने में विश्वास नहीं रखते, अनजान लोगों से तो बिल्कुल नहीं। तोक्यो की ट्रेनों में सफर करते हुए मैंने हजारों जापानियों को देखा लेकिन उनमें से अधिकांश अपने आपमें खोए हुए थे। स्कूली बच्चे जरूर एक दूसरे से बातचीत कर रहे थे अन्यथा बाकी लोग सब चुप। सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका या मित्र ही आपस में चर्चा करते दिखे। बाकियों को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे वे अपने आसपास की दुनिया से बेफिक्र या अनजान हैं।
यात्री ट्रेन में लपक कर बैठते थे और गंतव्य के आते ही ऐसे तपाक से उतर जाते थे जैसे वे कोई मशीन हों। जिस तरह हमें अपने स्टेशन से दो-तीन स्टेशन पहले ही उतरने की चिंता सताने लगती है, वैसा वहां कुछ नहीं होता। मैंने ऐसे अनेक लोग देखे जो स्टेशन आने से तीस सैकंड पहले तक अपनी सीट पर बैठे सो रहे थे और स्टेशन आते ही न जाने कैसे किसी 'जैविक अलार्म' को सुनकर तपाक से नीचे उतर गए। आप चाहें तो इसे उनकी फुर्ती कह लें और चाहें तो जीवन के मशीनी हो जाने का लक्षण। ऐसा लगता है जैसे उनके मस्तिष्क ठीक समय पर ट्रेन में चढ़ने.उतरने के लिए 'प्रोग्राम' कर दिए गए हैं।
तोक्यो की ट्रेनों में बैठे हजारों लोगों को किसी मूर्ति की तरह स्थिर बैठे देखकर आप चौंक जाएंगे। कोई किसी की ओर देखता तक नहीं। सबके सब किताबें या अखबार पढ़ रहे होंगे या फिर मोबाइल पर नजरें टिकाए होंगे (संयोगवश, जापान में मोबाइल पर डाउनलोड कर ई.बुक्स भी बहुत पढ़ी जाती हैं)। जो ऐसा नहीं कर रहे वे झपकी का आनंद ले रहे होंगे और बची-खुची महिलाएं मेकअप में लगी होंगी। तोक्यो की 'ट्रेन लाइफ' (अगर वह होती हो) का यही मर्म है। पश्चिमी देशों में भी मैंने ऐसा कभी नहीं देखा। अमेरिका में भी यात्री एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते हैं और कई बार तो अनजान लोगों के बीच अच्छी-खासी चर्चाएं भी होती रहती हैं। अमेरिका में विमान यात्रा के दौरान एक सहयात्री ने मुझे 'सुडोकु' (अंक आधारित पहेली) सिखाया। उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी में भारत के योगदान को लेकर काफी चर्चा भी की। जापान में ऐसा कुछ नहीं दिखा। जैसे उन्हें किसी अन्य से कोई मतलब ही नहीं, भले ही आप विदेशी हों या जापानी।
इश्क की उम्र में काम है वरीयता
मुझे जिज्ञासा हुई कि जब कोई लड़का और कोई लड़की एक.दूसरे को देखता/देखती ही नहीं तो वहां युवक इश्क-विश्क कैसे करते होंगे? पता चला, इश्क तो करते हैं लेकिन उस रूमानी अंदाज में नहीं जिसे हम भारतीय उसके साथ जोड़कर देखते हैं। किशोरावस्था में पहुंचने तक वे किसी न किसी को साथी चुन चुके होते हैं और अपना अधिकांश समय उसी के साथ बिताते हैं। उनके इस साहचर्य को सामाजिक मान्यता भी प्राप्त है। बाजारों, मॉल्स,पार्क, रेस्तरां आदि में हाथ में हाथ डाले युवक-युवतियां बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं। हाथ में हाथ डाले रखने का अर्थ ही प्रेमी-प्रेमिका से लगाया जाता है। कुछ जापानी छात्र-छात्राएं जब भारत आए तो उन्होंने यहां बड़ी संख्या में लड़कों को अपने दोस्तों (लड़कों) के हाथ पकड़कर चलते हुए देखा। कॉलेजों, बाजारों आदि में लड़कियां भी अपनी सहेलियों के साथ चिपकी हुई जा रही थीं। यह उनके लिए असामान्य स्थिति थी। जब वे जापान लौटीं तो उनके प्रोफेसरों ने उनसे भारत के अनुभव पूछे। उन्होंने जवाब दिया कि और सब तो ठीक है लेकिन भारत में समलैंगिक लोगों की भरमार है। उन्होंने हाथ में हाथ डाले सभी लोगों को एक-दूसरे का जीवनसाथी समझा था। जापान में सामान्य मित्र या परिचित हाथ में हाथ डालकर नहीं घूमते।
जिस तरह लड़के.लड़कियां स्वाभाविक रूप से एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं वैसा न जाने क्यों मुझे वहां नहीं दिखा। अगर अपने पूर्व-चयनित साथी को छोड़ दें तो न लड़कियां लड़कों में दिलचस्पी लेती दिखीं और न लड़के लड़कियों में। प्रेम के प्रति यह विरक्ति जरूर लंबे सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम रही होगी। ग़ालिब अगर जापान में पैदा हुए होते तो ग़ालिबन 'इश्क में कभी निकम्मे' न होते और न ही लिख पाते कि
इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब।
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।
जापानी नवयुवकों की यह विरक्ति सिर्फ प्रेम के प्रति नहीं है। परिवार बसाने और बढ़ाने में भी जापानियों की दिलचस्पी कम हो रही है। शिशुओं की जन्म दर में लगातार कमी आ रही है जबकि अविवाहितों और बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है। जापान की जनसंख्या का 23 फीसदी हिस्सा 65 वर्ष से अधिक उम्र वालों का है। यह विश्व में सर्वाधिक है। वजह यह है कि जापान में स्त्रियों की जीवन अपेक्षा दर लगभग 86 वर्ष और पुरुषों की लगभग 80 वर्ष है। लेकिन ज्यादा बड़ी वजह यह है कि जापान में 1950 के दशक में जहां प्रति एक हजार लोगों पर शिशु जन्मदर 3॰65 थी वही अब घटकर सिर्फ 1॰34 पर आ गई है। विवाह करने वाले जोड़ों की संख्या में कमी आ रही है जबकि तलाकशुदा लोगों की संख्या बढ़ रही है। इस साल के आंकड़ों के अनुसार वहां प्रति एक हजार लोगों के बीच छह शादियां हुई हैं और दो तलाक।
मानवीय संबंधों का संकट
माता.पिताओं और बच्चों के संबंधों में भी काफी कुछ अस्वाभाविक प्रतीत होता है। जापानी युवक-युवतियों को देर रात तक रेस्तराओं, मॉल्स और पार्कों आदि में देखकर यह न सोचें कि वे एक दूसरे के प्रेम में कुछ ज्यादा ही मगन हैं। हो सकता है कि देर से घर जाना उनकी अनिवायर्ता हो। बहुत से माता.पिता यही चाहते हैं। शायद स्थान की कमी की वजह से (जापान में घर बहुत छोटे-छोटे होते हैं), शायद अपनी निजता के संरक्षण के लिए, या फिर किसी अन्य कारण से। युवा अपना अधिकांश समय घर के बाहर ही बिताते हैं।
अनेक पश्चिमी देशों की ही तरह जापानी अभिभावक धीरे-धीरे अपने बच्चों को स्वतंत्र होने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। बच्चे घर से बाहर समय बिताने के लिए तरह-तरह के साधन ढूंढते हैं। वीडियो गेम्स खेलने के लिए मॉल्स जैसी बहुमंजिला इमारतें हैं जो बच्चों से ठसाठस भरी रहती हैं। परिवार की जड़ों से धीरे-धीरे कटते हुए ये बच्चे रेसिंग और रेसलिंग के गेमों में रोमांच ढूंढते रहते हैं। वे ज्यों.ज्यों बड़े होते हैं, माता-पिता से मिलने वाला धन कम होता जाता है और पढ़ाई के दौरान ही अधिकांश छात्र-छात्राएं पार्ट टाइम काम करने लगते हैं (यह अच्छी बात है कि जापान में वेतन के भुगतान को लेकर बेहद कठोर नियम लागू किए गए हैं जो किसी भी वेतनभोगी के हितों की सुरक्षा करते हैं। वहां वेतन की दरें सरकार द्वारा तय हैं और छात्रों का दो लाख येन प्रतिमाह तक कमा लेना सामान्य बात है)। बच्चों के आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद परिवार के साथ उनके रिश्तों की डोर और भी कमजोर हो जाती है। तब अधिकांश युवक अलग रहने के लिए चले जाते हैं और अपने निजी जीवन को संवारने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
विख्यात कथाकार तेजेंद्र शर्मा ने एक दिलचस्प तथ्य बताया। जापान में विवाहित जीवन को लेकर एक विशेष स्थिति देखने को मिलती है। मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग के अधिकतर लोग टोक्यो या ओसाका शहर में बड़ा घर नहीं ले पाते। इसलिए कुछ जापानियों के पत्नी और बच्चे शहर से बाहर उपनगर के बड़े घर में रहते हैं जबकि शहर में वे एक स्टूडियो फ्लैट ले कर अपनी 'लिव इन' प्रेमिका के साथ रहते हैं। अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वे केवल सप्ताहांत मनाते हैं जबकि वर्किंग पार्टनर के साथ हफ्ते के पांच दिन। यह स्थिति जापानी महिलाओं ने जैसे स्वीकार कर ली है।
यह निजी जीवन एकाकीपन की हद तक पहुंच गया है। ऐसे युवक-युवतियों की संख्या बहुत अधिक है जो विवाह नहीं करना चाहते। वे विवाह को लंबे समय तक टालते रहते हैं। युवकों के लिए विवाह की औसत आयु बढ़ते.बढ़ते 30॰1 वर्ष हो गई है और युवतियों के लिए 28॰3 वर्ष। जो युवक-युवती विवाह कर भी लेते हैं वे बच्चे पैदा नहीं करना चाहते। योको हारुका की पुस्तक 'केक्कोन शिमाशेन' (मैं कभी शादी नहीं करूंगी) एक जापानी बेस्टसेलर है और वहां के सामाजिक ट्रेंड्स को बखूबी अभिव्यक्त करती है। दिलचस्प बात यह है कि यह धारणा पुरुषों की तुलना में महिलाओं में कहीं ज्यादा तेजी से फैली है। शायद उनकी बढ़ती आय की वजह से, या फिर सामाजिक रीतियों व बंधनों के प्रति अरुचि के कारण। कहते हैं, जापानी पारिवारिक जीवन में भी बहुत झंझट हैं और युवतियां उनसे दूर ही रहना चाहती हैं। सन 2006 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार जापान में करीब 41 लाख अविवाहित लोग अकेले रह रहे थे। इनमें पुरुषों की संख्या दस लाख से कुछ ज्यादा और महिलाओं की 30॰70 लाख के लगभग थी। जाहिर है, सामाजिकता के प्रति जापानी युवाओं के मौन विद्रोह का नेतृत्व स्त्रियों के हाथ में है।
धार्मिक आस्था कोई विवशता नहीं
मेरे मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि जापान जैसा आधुनिक और औद्योगिक रूप से अग्रणी राष्ट्र धर्म और संस्कृति के साथ कैसे तालमेल बिठाता है? अनेक राष्ट्र आधुनिकता और परंपरा के अंतरविरोधों से ग्रस्त और त्रस्त हैं और जापान भी इससे पूरी तरह मुक्त नहीं है। अहम बात यह है कि जापानियों में धर्म के प्रति रुचि उतनी गहरी नहीं है जैसी हमारे यहां पर। वह उनके दैनिक जीवन में हम जैसा अहम स्थान भी नहीं रखता। उनके लिए राष्ट्र अहम है, धर्म नहीं। अपनी धार्मिक आस्थाओं का न वे प्रदर्शन करते हैं और न ही उसके बारे में विशेष चर्चा ही। वह निजी आस्थाओं का प्रश्न है, जिन्हें सार्वजनिक करना कोई अनिवार्यता नहीं समझी जाती।
भारत में अधिकांशत: यह धारणा है कि जापान मूलत: बौद्ध धर्मावलंबियों का राष्ट्र है। जापान ने बौद्ध धर्म को जिस गहराई के साथ अंगीकार किया है उससे यह धारणा बनी है। वास्तव में जापान का परंपरागत धर्म 'शिन्तो' है। वहां बौद्ध धर्म का आगमन तो छठी सदी में हुआ था जबकि शिन्तो का उल्लेख ज्ञात जापानी इतिहास के प्राचीनतम काल से मिलता आया है। न सिर्फ इसे मानने वालों की संख्या सर्वाधिक है बल्कि यह एकमात्र धर्म है जो पूरी तरह जापान में उत्पन्न हुआ और पनपा। आधुनिक काल में यह उसके अलावा किसी और देश में दिखाई भी नहीं देता। शिन्तो और बौद्ध धर्म के साथ-साथ वहां करीब कन्फ्यूशियनवाद, ताओवाद और सोका गक्काई (1930 में स्थापित स्थानीय धर्म) का भी खासा प्रभाव रहा है। स्थानीय जनजीवन पर इन सबका प्रभाव दिखाई देता है।
हां, अब इस सूची में ईसाई धर्म भी जुड़ रहा है। मैंने तोक्यो में क्रिसमस की शानदार सजावट देखी, जो युवाओं के बीच उसके प्रति बढ़ते आकर्षण को अभिव्यक्त करती है। चूंकि युवाओं पर अमेरिकी फैशन और जीवनशैली का काफी प्रभाव है इसलिए वे ईसाइयत के भी करीब जा रहे हैं। चर्च जाने वाले जापानी युवक-युवतियों की संख्या काफी बढ़ी है। जापान में करीब 65 हजार स्थानीय मुस्लिम भी हैं। वैसे विदेशियों को मिला लें तो वहां करीब सवा लाख मुसलमान हैं। बौद्ध और शिन्तो मतावलंबियों की संख्या करीब नौ करोड़ है जबकि हिंदू कुछेक हजार होंगे।
धार्मिक सहिष्णुता में एक कदम आगे
जापानी संस्कृति में एक अनूठी बात देखने को मिलती है कि वह लोगों को एक से अधिक धर्मों को मानने की अनुमति देती है। वहां विभिन्न धर्मों के बीच विलक्षण सह-अस्तित्व और सामंजस्य देखा जा सकता है। बौद्ध धर्म को मानने वाले बहुत सारे जापानी शिन्तो में भी आस्था रखते हैं। बौद्ध और शिन्तो के बीच इतना गहरा संबंध है कि लंबे समय से उन्हें एक संयुक्त धर्म माना जाता रहा है। दोनों धर्मों का विकास अलग.अलग स्थानों पर हुआ लेकिन बौद्ध धर्म से जुड़े अनेक देवताओं को शिन्तो देवताओं के रूप में भी पूजा जाता है। शिन्तो मंदिरों में बुद्ध प्रतिमाएं भी दिख जाती हैं। हालांकि ऐसा हमेशा नहीं था।
सन् 1868 में मेईजी क्रांति के बाद सम्राट मेईजी ने बौद्ध और शिन्तो को जबरन अलग कर दिया था। उन्होंने शिन्तो को जापान का राजधर्म बनाया और कोरिया,ताईवान आदि राष्ट्रों के साथ युद्ध में विजय के बाद उसे वहां का राजधर्म भी बना दिया। सभी धार्मिक संस्थान सरकारी नियंत्रण में ले लिए गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापानियों के लिए शिन्तो परंपराओं का पालन अनिवार्य कर दिया गया। अलबत्ता, 1945 में जापान पर अमेरिकी नियंत्रण के बाद धर्म को सरकार से अलग कर दिया गया और 1947 में जापानी संविधान में सबको धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया। शिन्तो (चीनी भाषा का शब्द, अर्थ. ईश्वर का मार्ग) कई मायनों में दूसरे धर्मों से अलग है। एक तो बाइबल, कुरान या रामायण की तरह इसका कोई आधिकारिक धार्मिक ग्रंथ नहीं है और दूसरे इसका कोई संस्थापक नहीं है।
जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते छठी सदी में पहुंचा था। बताया जाता है कि दक्षिण कोरिया में बेइकजे नामक स्थान के राजा ने जापानी नरेश को भगवान बुद्ध की मूर्ति और कुछ सूत्र भिजवाए थे। अपनी आध्यात्मिक गहराई, बौद्धिक समृद्धि और भगवान बुद्ध के संदेश ने शिन्तो देवपूजा में रत जापानियों को खासा प्रभावित किया। उन्हें अपनी आध्यात्मिक चिंताओं और धार्मिक जिज्ञासाओं के समाधान भगवान बुद्ध के संदेशों में मिलने लगे। सन् 1100 में जापान की राजधानी तोक्यो के पास कामाकुरा में स्थानांतरित हो गई तब वहां बौद्ध धर्म का काफी विकास हुआ। कामाकुरा की विशाल बुद्ध प्रतिमाओं का दर्शन मेरे लिए अविस्मरणीय अनुभव था। भारत, भारतीयता और भारतीय भाषा के साथ निकटता और समानता के जिन तत्वों को मैं अन्य स्थानों पर थोड़ा-थोड़ा महसूस कर रहा था, उनका कामाकुरा में और भी अधिक प्रकट एवं स्पष्ट रूप में साक्षात्कार किया।
भारत और भारतीयता के चिह्न
स्वामी विवेकानंद ने 116 साल पहले जापान की अपनी यात्रा के दौरान लिखा था कि उन्होंने कोबे में बहुत से मंदिर देखे जिनमें प्राचीन बंगाली लिपि में संस्कृत के कुछ मंत्र लिखे हैं। हालांकि वहां के पुजारियों को संस्कृत का बहुत कम ज्ञान है। स्वामीजी 21 सितंबर 1893 को शिकागो में होने वाली विश्व धर्म संसद में हिस्सा लेने के लिए अमेरिका रवाना हुए तो वे मार्ग में जापान में ठहरे थे। उन्होंने 10 जुलाई 1893 को योकोहामा से उस समय के मद्रास राज्य के अलसिंगा पेरूमल को भेजे गए पत्र में ये टिप्पणियां लिखी थीं। मैंने जब कामाकुरा के बौद्ध मंदिरों का दौरा किया तो पाया कि स्वामीजी की यात्रा के करीब सवा सौ साल बाद भी वहां भारतीयता के चिह्न मौजूद हैं। तोक्यो के पास एक बौद्ध मंदिर में जब हम पहुंचे तो वहां प्रार्थना का समय चल रहा था। प्रमुख पुजारी जिस तरह से प्रार्थना के श्लोकों का उच्चारण कर रहे थे वह काफी हद तक हमारे संस्कृत मंत्रों की झलक देता था। उनके पास एक विशेष प्रकार का वाद्य यंत्र था जिससे शंख जैसी ध्वनि निकलती थी।
डॉ॰ कृष्ण दत्त पालीवाल के अनुसार जापान में मंत्रयान संप्रदाय के बहुत से मंदिर हैं और उनमें मंत्रों के अध्ययन और भाष्य की गंभीर परंपरा है। ज्यादातर मंदिरों की मुद्रा भी संस्कृतमय है। माना जाता है कि इसकी लिपि नागरी का ही एक रूप 'सिद्धम' है जिसे जापानी में 'शित्तान' कहते हैं। यह सिद्धनागरी जापान की पवित्र मंत्र लिपि है। इन मंदिरों के पुजारी सिद्ध मंत्र लिखकर देते हैं और उनसे प्राप्त धन से जीवन-निर्वाह करते हैं। एक मंदिर के पुजारी से मेरी काफी बातचीत हुई। वे यह देखकर बहुत प्रसन्न थे कि हम भगवान बुद्ध के देश से आए हैं। हालांकि उन्हें संस्कृत भाषा की कोई जानकारी नहीं थी। मंदिरों में अग्नि का जलना, लोगों का हाथ जोड़कर प्रार्थना करना और श्रद्धालुओं द्वारा मंदिर में पवित्र धुआं को ग्रहण करना भारतीय मंदिरों की याद दिलाता था। शिन्तो मंदिरों में कई स्थानों पर स्वस्तिक के निशान दिखाई दिए और मंदिर के बाहर उसी तरह जानवरों की पाषाण प्रतिमाओं के मुंह से पानी बह रहा था, जैसे हमारे अनेक मंदिरों में गोमुख से चरणामृत निकलता है। जापानी लोग भी उसे चरणामृत की भांति ही ग्रहण करते हैं।दो अहम बातें
अंत में जापान के संदर्भ में दो अहम बातें। पहली, जापान बहुत महंगा है। एक पयर्टक के रूप में वहां जाएं तो आर्थिक लिहाज से तैयार होकर जाएं। होटलों से लेकर यातायात और भोजन तक बहुत महंगा है। दिल्ली में हम अपने घर से अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जाने के लिए पांच सौ रुपए देते समय भी संकोच करते हैं। जापान में तोक्यो के किसी भाग से नरीता हवाई अड्डे जाने के लिए इससे बीस गुना या और भी अधिक (कम से कम दस बारह हजार रुपए) देने के लिए तैयार रहें। बेहतर है कि बसों और ट्रेनों का प्रयोग करें। हालांकि भारत की टैक्सी वहां की बसों और ट्रेनों से भी सस्ती पड़ती है।
दूसरे, बहुत से पश्चिमी देशों की तरह जापान में भी शाकाहारी लोगों के लिए ठीकठाक भोजन प्राप्त करना एक बड़ी समस्या है। जो इक्का-दुक्का भारतीय रेस्टोरेंट हैं, वे बहुत महंगे हैं। बहुत का अर्थ बहुत ज्यादा। दो रोटी और एक प्याली दाल के लिए एक हजार रुपए तक का भुगतान सामान्य बात है।
शाकाहार की अवधारणा से जापानी लोग अधिक परिचित नहीं लगते। हमें पाकिस्तानी राजदूत महोदय की ओर से एक पंचतारा होटल में रात्रिभोज के लिए आमंत्रित किया गया था। जब हम भोजन के लिए पहुंचे तो पाया कि हम शाकाहारियों के मतलब का वहां कुछ भी नहीं है। किसी ने चुपके से आयोजकों को खबर की कि अतिथियों में से तो अधिकांश शाकाहारी हैं और आपने मांसाहारी भोजन की वैरायटी सजा दी है। उन्होंने हमें अहसास कराए बिना शाकाहारी भोजन का इंतजाम किया लेकिन तमाम कोशिश के बावजूद वे उस पंचतारा होटल में महज फल,जूस, सलाद, उबले हुए आलू आदि की ही व्यवस्था कर सके। खैर, हमारे लिए भोजन की तुलना में भावना अधिक महत्वपूर्ण थी और हमने उसका खूब आनंद उठाया।








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